Book Title: Karm vipak aur Atm Swatantrya
Author(s): Lokmanya Bal Gangadhar Tilak
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 2
________________ कर्मविपाक और आत्म-स्वातन्त्र्य ] [ २५६ अर्थात् भुना हुआ बीज जैसे उग नहीं सकता, वैसे ही जब ज्ञान से (कर्म के) क्लेश दग्ध हो जाते हैं, तब वे आत्मा को पुनः प्राप्त नहीं होते । उपनिषदों में भी इसी प्रकार ज्ञान की महत्ता बतलाने वाले अनेक वचन हैं जैसे-“य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्व भवति ।' जो यह जानता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ, वही अमृत ब्रह्म होता है । जिस प्रकार कमल पत्र में पानी चिपक नहीं सकता, उसी प्रकार जिसे ब्रह्मज्ञान हो गया है, उसे कर्म दूषित नहीं कर सकते । ब्रह्म जानने वाले को मोक्ष मिलता है । जिसे यह मालूम हो चुका है कि सब कुछ आत्ममय है, उसे पाप नहीं लग सकता। 'ज्ञात्वा देवं मुचयते सर्वपाशैः'3 परमेश्वर का ज्ञान होने पर सब पापों से मुक्त हो जाता है । "क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे" (मु. २.२.८) परब्रह्म का ज्ञान होने पर सब कर्मों का क्षय हो जाता है । 'विद्ययामृतमश्नुते'४ विद्या से अमृतत्व मिलता है। "तमेव विदित्वावुतिमुत्युमेति नान्यःपन्था विद्यतेऽयनाय" (श्वे. ३.८) परमेश्वर को जान लेने से अमरत्व मिलता है, इसको छोड़ मोक्ष प्राप्ति का दूसरा मार्ग नहीं है और शास्त्र दृष्टि से विचार करने पर भी यही सिद्धान्त दृढ़ होता है । क्योंकि दृश्य सृष्टि में जो कुछ है, वह सब यद्यपि कर्ममय है, तथापि इस सृष्टि के आधारभूत परब्रह्म की ही वह सब लीला है, इसलिए यह स्पष्ट है कि कोई भी कर्म परब्रह्म को बाधा नहीं दे सकते अर्थात् सब कर्मों को करके भी परब्रह्म अलिप्त ही रहता है। अध्यात्मशास्त्र के अनुसार इस संसार के सब पदार्थों के कर्म (माया) और ब्रह्म, ये दो ही वर्ग होते हैं । इससे यही प्रकट होता है कि इनमें से किसी एक वर्ग से अर्थात् कर्म से छुटकारा पाने की इच्छा हो तो मनुष्य को दूसरे वर्ग में अर्थात् ब्रह्म स्वरूप में प्रवेश करना चाहिये । इसके सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। क्योंकि जब सब पदार्थों के केवल दो ही वर्ग होते हैं, तब कर्म से मुक्त अवस्था सिवा ब्रह्म स्वरूप के और कोई शेष नहीं रह जाती । परन्तु ब्रह्म स्वरूप की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से यह जान लेना चाहिये कि ब्रह्म का स्वरूप क्या है ? नहीं तो करने चलेंगे एक और होगा कुछ दूसरा ही। 'विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्' मूर्ति तो गणेश की बनानी थी, परन्तु (वह न बन कर) बन गई बंदर की । ठीक यही दशा होगी। इसलिए अध्यात्मशास्त्र के युक्तिवाद से भी यही सिद्ध होता है कि ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान (अर्थात् ब्रह्मात्मैक्य का तथा ब्रह्म की अलिप्तता का ज्ञान) प्राप्त करके उसे मृत्युपर्यन्त स्थिर रखना ही कर्मपाश से मुक्त होने का सच्चा मार्ग है। गीता में १-बृहदारण्यकोपनिषद १.४.१० २–छान्दोग्योपनिषद् ४.१४.३ ३-श्वेताश्वतरोपनिषद् ५.१३, ६.१३ , ४-ईशावास्योपनिषद् ११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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