Book Title: Karm ke Adharbhut Siddhant Author(s): Shiv Muni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 3
________________ कर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त ] [67 दुःख आदि अमूर्त तत्त्वों की उत्पत्ति कैसे होती है ? सुख आदि हमारी आत्मा के धर्म हैं और आत्मा ही उनका उत्पादन कारण है। कर्म तो केवल सुख-दुःख में निमित्त कारण रूप हैं। अतः जो कुछ ऊपर कर्म के विषय में कहा गया है वह इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है। ___ यहां यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है कि जब कर्म तो मूर्त हैं और आत्मा अमर्त्त हैं फिर दोनों का मेल कैसे खायेगा ? अमूर्त प्रात्मा पर कर्म कैसे प्रभावी हो सकते हैं ? आपने कभी मदिरा तो देखी होगी। मदिरा मूर्त होती है। जब मनुष्य मदिरा को पी लेता है तो जिस प्रकार आत्मा के अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर उसका प्रभाव होता है, ठीक उसी प्रकार मूर्त कर्मों का अमूर्त प्रात्मा पर प्रभाव होता है। भारतीय दर्शन में यह कर्मवाद सिद्धान्त अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। चार्वाकों को छोड़कर समस्त दार्शनिक किसी न किसी रूप में कर्मवाद को अवश्य स्वीकार करते हैं। भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, कला और विज्ञान आदि सब पर कर्मवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दीख पड़ता है। जीव अनादि काल से कर्मों के वशीभूत होकर अनेक भवों में भ्रमण करता चला आ रहा है। जीवन और मरण दोनों की जड़ कर्म है। इस संसार में जन्म और मरण ही सबसे बड़ा दुःख है। जो जैसा करता है, वैसा ही फल भोगना पड़ता है। एक प्राणी पर दूसरे प्राणी के कर्मफल का प्रभाव नहीं होता। कर्म स्व सम्बद्ध होता है, पर सम्बद्ध नहीं। यद्यपि सभी विचारकों ने कर्मवाद को माना है फिर भी जैन शास्त्रों में इसका जितना विशद विवेचन मिलता है, उसकी तुलना अन्यत्र दुर्लभ ही हैं। यही कारण है कि कर्मवाद जैन दर्शन का एक आत्मीय अंग बन गया है। कर्मवाद के कुछ आधारभूत सिद्धान्त होते हैं जिन्हें हम इस प्रकार समझ सकते हैं :1. प्रत्येक क्रिया फलवती होती है / कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती। 2. यदि किसी क्रिया का फल इस जन्म में नहीं प्राप्त होता तो उसके लिए भविष्यकालीन जीवन अनिवार्य है। 3. कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता यह जीव, कर्मों के प्रभाव से एक भव से दूसरे भव में गमन करता रहता है / अपने किसी न किसी भव के माध्यम से ही वह एक निश्चित काल-मर्यादा में रहता हुआ अपने पूर्व कृत कर्मों का फलभोग तथा नए कर्मों का बन्धन करता है। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि कर्म बन्धन की इस परम्परा को तोड़ना भी उसकी शक्ति के अन्तर्गत ही है। 4. जन्मजात व्यक्ति-भेद और असमानता कर्मों के कारण ही होती है। आत्मा की अनन्त शक्ति पर कर्मों का आवरण आया हुआ है जिसके कारण हम अपने आपसे परिचित नहीं हो पा रहे हैं। इन कर्मों से हम तभी मुक्त हो पाएँगे, जब हमें अपनी शक्ति का पूरा परिचय और भरोसा होगा। * Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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