Book Title: Karm aur Karya Maryada
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 2
________________ कर्म और कार्य-मर्यादा ] . [ २४३ की विविध परिस्थिति के होने में निमित्त नहीं हैं किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अतः कर्म का स्थान बाह्य सामग्री को मिलना चाहिये । परन्तु विचार करने पर यह युक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंग में वैसी योग्यता के अभाव में बाह्य सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है । जिस योगी का राग भाव नष्ट हो गया है उसके सामने प्रबल राग की सामग्री उपस्थित होने पर भी राग पैदा नहीं होता । इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंग में योग्यता के बिना बाह्य सामग्री का कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्म के विषय में भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। कर्म जैसी योग्यता का सूचक है पर बाह्य सामग्री का वैसी योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं। कभी वैसी योग्यता के सद्भाव में भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभाव में भी बाह्य सामग्री का संयोग देखा जाता है। किन्तु कर्म के विषय में ऐसी बात नहीं है । उसका सम्बन्ध तभी तक प्रात्मा से रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है। अतः कर्म का स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी अन्तरंग में योग्यता के रहते हुए बाह्य सामग्री के मिलने पर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिए निमित्तों की परिगणना में बाह्य सामग्री की भी गिनती हो जाती है। पर यह परम्परा निमित्त है । इसलिये इसकी परिगणना तो कर्म के स्थान में की गई है। , ___ इतने विवेचन से कर्म की कार्य-मर्यादा का पता लग जाता है। कर्म के निमित्त से जीव की विविध प्रकार. की अवस्था होती है और जीव में ऐसी योग्यता आती है जिससे वह योग द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणमाता है । कर्म की कार्य-मर्यादा यद्यपि उक्त प्रकार की है तथापि अधिकतर विद्वानों का विचार है कि बाह्य सामग्री की प्राप्ति भी कर्म से होती है। इन विचारों की पुष्टि में वे 'मोक्ष मार्ग प्रकाश' के निम्न उल्लेखों को उपस्थित करते हैं- "तहाँ वेदनीय करि तो शरीर विष वा शरीर तै बाह्य नाना प्रकार सुख दुःखानि को कारण पर द्रव्य का संयोग जुरै है ।" पृ० ३५ उसी से दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं "बहरि कर्मनि विषै वेदनीय के उदय करि शरीर विषै बाह्य सुख दुःख का कारण निपजै है । शरीर विषै आरोग्यपनौ, रोगीपनौ, शक्तिवानपनौ, दुर्बलपनौ अर क्षुधा, तृषा, रोग, खेद, पीड़ा इत्यादि सुख दुःखानि के कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विष सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक.... सुख दुःख के कारक ही हैं ।" पृ० ५६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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