Book Title: Karm Siddhant Manan aur Mimansa
Author(s): Sanghmitrashreejiji
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 9
________________ २३८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन अन्य ==. ०००००००००००० ०००००००००००० हटल WpTH BER .. NEXSI NUTRITI असंख्यात गुण अधिक होते हैं । तृतीय समय के उससे भी असंख्यात गुण अधिक, यही क्रम अन्तर्मुहुर्त के चरम समय तक चलता रहता है । इस प्रकार हर समय पर असंख्यात गुण अधिक होने के कारण इसे गुणश्रेणी कहा जाता है । गुण संक्रमण में अशुभ कर्मों की शुभ में परिणति होती जाती है। स्थापना का क्रम गुण श्रेणी की तरह ही है। अष्टम गुणस्थान से लेकर चतुर्दश गुणस्थान तक ज्यों-ज्यों आत्मा आगे बढ़ती है त्यों-त्यों समय स्वल्प और कर्म दलिक अधिक मात्रा में क्षय होते जाते हैं। कर्म क्षय की प्रक्रिया यह कितनी सुन्दर है। इस अवसर पर आत्मा अतीव स्वल्प स्थिति के कर्मों का बंधन करती है जैसा उसने पहले कभी नहीं किया है अतः इस अवस्था का बन्ध अपूर्व स्थिति बंध कहलाता है। स्थिति घात और रस घात भी इस समय में अपूर्व ही होता है अतः यह अपूर्व शब्द सबके पीछे जुड़ जाता है। इस उत्क्रान्ति की स्थिति में बढ़ती हुई आत्मा जब परमात्मा-शक्ति को जागृत करने के लिए अत्यन्त उग्र हो जाती है, आयु स्वल्प रहता है, कर्म अधिक रहते हैं तब आत्मा और कर्मों के बीच भयंकर युद्ध होता है । आत्म-प्रदेश कर्मों से लोहा लेने के लिए देह की सीमा को तोड़ रणभूमि में उतर आते हैं। आत्मा बड़ी ताकत के साथ लड़ती है । यह युद्ध कुछ माइल तक ही सीमित नहीं रहता। सारे लोक-क्षेत्र को घेर लेता है। इस महायुद्ध में कर्म बहु संख्या में शहीद हो जाते हैं । आत्मा की बहुत बड़ी विजय होती है। शेष रहने वाले कर्म बहुत थोड़े रहते हैं और वे भी इतने दुर्बल और शिथिल हो जाते हैं कि अधिक समय तक टिकने की इनमें शक्ति नहीं रहती। इनकी जड़ इस प्रकार से हिलने लगती है कि फिर उनको उखाड़ फेंकने के लिए छोटा-सा हवा का झोंका भी काफी है। कर्म क्षय की यह प्रक्रिया जैन दर्शन में केवलि समुद्घात' की संज्ञा से अभिहित है। इस केवलि समुद्घात की क्रिया से पातञ्जल योग दर्शन की बहुकाय निर्माण क्रिया बहुत कुछ साम्य रखती है। वहाँ बताया है-२"यद्यपि सामान्य नियम के अनुसार बिना भोगे हुए कर्म करोड़ों कल्पों में मी क्षय नहीं होते परन्तु जिस प्रकार गीले वस्त्र को फैलाकर सुखाने में वस्त्र बहुत जल्दी सूख जाता है अथवा अग्नि और अनुकूल हवा के सहयोग मिलने से बहुत जल्दी जलकर भस्म हो जाता है। इसी प्रकार योगी एक शरीर से कर्मों के फल को भोगने में असमर्थ होने के कारण संकल्प मात्र से बहुत से शरीरों का निर्माण कर ज्ञानाग्नि से कर्मों का नाश करता है । योग शास्त्र में इसी को बहुकाय निर्माण से सोपक्रम आयु का विपाक कहा है।" वायुपुराण में भी यही प्रतिध्वनि है-जैसे सूर्य अपनी किरणों को प्रत्यावृत्त कर लेता है इसी प्रकार योगी एक शरीर से बहुत शरीरों का निर्माण कर फिर उसी शरीर में उनको खींच लेता है। सांख्य और प्रकृति जैन दर्शन में जो स्थान आत्मा और कर्म का रहा, सांख्य दर्शन में वही स्थान प्रकृति और पुरुष का रहा है। पुरुष, अपूर्व, चेतन, भोगी, नित्य, सर्वगत, अक्रिय, अकर्ता, निर्गुण, सूक्ष्म स्वरूप हैं। सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति है । प्रकृति पुरुष का सम्बन्ध पंगु और अंधे TUTU Hink ........: १ पन्नवणा पद ३६ । २ स्याद्वाद मञ्जरी से उद्ध त पृ० ३६६ । ३ वायुपुराण ६६-१५२। ४ स्याद्वाद मं० से उद्धत पृ० १८६ । ५ हरिभद्रसूरि कृत षड्दर्शन, श्लोक ३६ । ६ वही पृ० ४२ । JORDAR A NRNON COOO Jaimeducation international momembramory

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