Book Title: Karm Prakrutiya aur Unka Jivan ke Sath Sambandh
Author(s): Shreechand Golecha
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 7
________________ 138 ] [कर्म सिद्धान्त 7. गोत्र-नाम कर्म को सर्व उत्तर प्रकृतियों की सम्मिलित शक्ति का प्रभाव देह की क्रियाओं पर प्रकट होता है, वह गोत्र कर्म है / यदि वे दैहिक क्रियाएँ सद् प्रवृत्तियों के रूप में हैं तो वह उच्च गोत्र है / दुष्प्रवृत्तियों के रूप में तो वह नीच गोत्र है। 8. अंतराय-आयु, नाम, गोत्र इनका उदय (वेदन होने पर भोग की कामना का पैदा होना) अंतराय कर्म है / भोगों को प्राप्त करने की अभिलाषा दानान्तराय है, भोगों के प्रति रुचि होने की अवस्था लाभान्तराय है, भोगने की अभिलाषा भोगान्तराय है, बार-बार भोगने की अभिलाषा, लालसा का बना रहना उपभोग अन्तराय और भोगों के प्रति पुरुषार्थ करने की वृत्ति वीर्यान्तराय है / भोगों के भोगने की इच्छा या वासना नहीं रहने पर अंतराय कर्म क्षय हो जाता है। इस लेख में आयु, नाम, अन्तराय आदि कर्मों की मूल व उत्तर प्रकृतियों की परिभाषाएँ परम्परागत परिभाषाओं से भिन्न रूप में प्रस्तुत की गई हैं। इनका आधार यह है कि देह का हल्का, भारी, कठोर, नर्म, सबल-निर्बल, सुन्दरअसुन्दर होना, देह का काला, गोरा आदि वर्गों का होना, सुगंध-दुर्गन्ध युक्त होना, मीठा, खट्टा आदि आस्वादन करना आदि की उपलब्धि कर्म बन्ध के कारण नहीं है / अपितु इन्द्रिय और मन की प्रवृत्तियाँ व क्रियाएँ ही कर्म बन्ध के कारण होती हैं। इसी प्रकार आयु की कमी-अधिकता भी कर्म बन्ध का फल नहीं है अपितु आयु जीवन की एक अवस्था है तथा भोगोपभोग संबंधी वस्तुओं का मिलना न मिलना सामान्य रूप से अन्तराय रूप है, परन्तु अन्तराय कर्म नहीं है। प्रातम-ध्यान राग-जंगला मैं निज आतम कब ध्याऊंगा। रागादिक परणाम त्याग के, समता सौं लौ लगाऊँगा / / मैं निज० 1 / / मन वच काय जोगथिर करके, ज्ञान समाधि लगाऊँगा / कब हौं श्रेणि चढ़ि ध्याऊँ, चारित मोह नशाऊंगा / मैं निज० 2 // चारों करम घातिया हन करि, परमातम पद पाऊँगा। ज्ञान दरश सुख बल भण्डारा, चार अघाति वहाऊँगा / / मैं निज० 3 / / परम निरंजन सिद्ध बुद्ध पद, परमानन्द कहाऊँगा। 'द्यानत' यह सम्पत्ति जब पाऊँ, बहुरि न जग में आऊँगा / / मैं निज० 4 / / -द्यानतराय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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