Book Title: Kalidas ki Virah Vyanjan Author(s): Vishnukant Shastri Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf View full book textPage 3
________________ इस विचारक्रम में मैं कालिदास के निरूपण के अनुसार ही विरह को कुछ व्यापक अर्थ में ग्रहण कर रहा हूँ। सामान्यतः काव्यशास्त्र के अनुसार श्रृंगार के अन्तर्गत विप्रलंभ में ही विरह को सीमित किया जाता है। मृत्युजनित विच्छेद को शोक का हेतु मानकर उसका विवेचन करुण रस के अन्तर्गत किया जाता है। किन्तु कालिदास ने मृत्युजनित विच्छेद को विरह ही कहा है। इन्दुमती की आकस्मिक अकालमृत्यु से मर्माहत अज की उक्ति है। शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम्। इति तौ विरहान्तरसमौ कथमत्यन्तगता न मां दहेः॥ चन्द्रमा को शर्वरी और चकवे को चकवी पुन: प्राप्त हो जाती है अत: वे उनके विरह को सह लेते हैं, किन्तु हे अत्यन्तगता इन्दुमती ! तुम तो फिर मुझे नहीं मिलोगी, बताओ फिर विरहाग्नि मुझे भस्म क्यों न कर दे। यह अत्यन्तगता बहुत मार्मिक शब्द है। अत्यन्तगता... जो सदा के लिए चली गयी, जो फिर लौट कर नहीं आयेगी, जिसको पुन: नहीं पाया जा सकेगा। उस अत्यन्तगता के प्रति निवेदित प्रेम क्या मृत्यु के द्वारा खंडित हो जायेगा? भावनिबन्धना रति को क्या मृत्यु नष्ट कर सकती है? क्या प्रेम देह के माध्यम से उद्भूत ही नहीं, देहसीमित भी होता है? क्या प्रेम विदेह नहीं हो सकता? और यदि हो सकता है तो दैहिक मिलन की संभावना मृत्यु के द्वारा खंडित हो जाने पर उस विदेह प्रेम को विरह की अनुभूति क्यों नहीं हो सकती ? क्यों उसे केवल शोकानुभूति ही कहना चाहिए? अपने प्राणों को प्रिय के चिर अनजान प्राणों से बांध देने के अनन्तर प्राणों की बढ़ती विरह व्यथा को वाणी देने के विवश प्रयास में सुमित्रानन्दन पन्त ने कहा है यह विदेह प्राणों का बन्धन, अन्तर्वाला से तपता तन, मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को, दग्ध कामना करता अर्पण। नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से।10 पन्त जी ने इस कविता में स्वीकारा है कि प्रेम की विदेह सत्ता भी हो सकती है। मैं मानता हूं कि कालिदास ने अज के विलाप में (और रति के विलाप में भी) जिस विरह को रेखांकित किया है, वह भावनिबन्धना रति की देहातीत विरह व्यंजना है। उसे प्रेम के अन्तर्गत ही मानना चाहिए, निरे शोक के अन्तर्गत नहीं। प्रेमी हृदय को अपने प्रेमपात्र की सत्ता का आभास प्रकृति के विविध रूपों में होता ही रहता है। अज को लगता है कि इन्दुमती उसे बहलाने के लिए कोयल को अपनी बोली, हंसिनी को अपनी चाल, हरिणी को अपनी चितवन और लता को अपनी लचक दे गयी है किन्तु प्रिया को अखंड... समग्र रूप में पाने के इच्छुक हृदय को इनमें उसकी आंशिक झलक पाकर संतोष कैसे हो सकता है, 'विरह तव मे गुरुव्यथं हृदयं न त्ववलम्बितुं क्षमाः।17 करुण रस के इस प्रसंग में भी विरह की व्याप्ति कर कालिदास ने अपूर्व सहृदयता का प्रमाण दिया है। भावनिबन्धना रति के लिए यदि शरीर आरंभिक साधन मात्र है, उसके परवर्ती अस्तित्व की अनिवार्य शर्त नहीं तो शरीर का बन्धन टूट जाने पर भी भाव का बन्धन नहीं टूटेगा और अपने प्रेमपात्र के विरह का अनुभव करने का अधिकार प्रेमी का बना रहेगा, यह बात समझ में आने लायक है। कालिदास ने एक और अद्भुत स्थापना की है। वे विरह को सौन्दर्य और प्रेम दोनों की कसौटी मानते हैं। विरह को प्रेम की कसौटी मानने वाले कालिदास ने बड़े भोले अन्दाज में कहा है: स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा दिष्टे वरतुन्युपचितरसा: प्रेमराशी भवन्ति।12 ___ हां, कहते हैं कुछ लोग कि विरह में स्नेह नष्ट हो जाता है, पर मालूम नहीं कैसे कहते हैं। शायद वे ही लोग कहते होंगे जिनकी दृष्टि शरीर-सीमित है। 'आँख से ओझल तो मन से ओझल' ऐसी बात जो कह सकता है वह वास्तविक प्रेमी है, कालिदास ऐसा नहीं मानते थे। वे तो मानते थे कि विरह में प्रेम और बढ़ जाता है। सीधी सी बात है प्रेमपात्र के सुलभ न होने के कारण उस पर जिसको उँडेला नहीं जा सकता वह तो संचित हो, होकर राशिभूत हो ही जायेगा। इस तरह कालिदास इस सत्य को रेखांकित करते हैं कि जो प्रेम विरह-काल में भी बढ़ता जाता है, वही सच्चा प्रेम है। अत: यह निर्विवाद है कि विरह ही प्रेम के खरे या खोटे होने की कसौटी है। इससे एक कदम आगे बढ़कर कालिदास कुछ चौंकाने वाली बात कहते हैं कि विरह ही सौन्दर्य की भी कसौटी है। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है, 'प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता13 अर्थात् चारुता का... सौन्दर्य का फल यही है कि वह प्रिय के प्रति सौभाग्य को प्रदीप्त करे। आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बताया है कि सौभाग्य एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त शब्द है। सुभग का वह आन्तरिक वशीकरण धर्म जो प्रेमपात्र को आकृष्ट करने में समर्थ है, सौभाग्य है। वह आन्तरिक वशीकरण धर्म वास्तव में किसी रूपवान या रूपवती में है कि नहीं, इसकी भी कसौटी विरह ही है। इसीलिए कालिदास ने कहा है, 'सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यंजयन्तीम्'15 अर्थात् हे सुभग, तुम्हारे आन्तरिक वशीकरण धर्म को विरह की अवस्था ही व्यंजित करती है। जिसका प्रिय उसके विरह में उसके सौन्दर्य को स्मरण नहीं करता, उसके सौन्दर्य को अपनी कल्पना से रंजित नहीं करता, अपनी भावना से भावित कर आत्मीय नहीं बना लेता और इस तरह अपने वशीकृत हृदय का प्रमाण नहीं देता कालिदास की दृष्टि में उसका सौन्दर्य वास्तविक सौन्दर्य ही नहीं है। कालिदास की यक्षिणी हो या शकुन्तला, उर्वशी हो या इन्दुमती या कोई और नायिका उसके वास्तविक सौन्दर्य का आस्वादन उसका प्रेमी विरह में उसके रूप के रोमन्थन के द्वारा करता है। कालिदास की दृष्टि के अनुसार यदि प्रेम की शारीरिक प्रक्रिया रम्य है तो उसकी स्मृति रम्यतर है। यथार्थ जगत् में प्रेमकेलि के द्वारा जो कुछ किया वह तो सीमित है लेकिन उसकी कल्पनामिश्रित स्मृति की व्याप्ति तो असीम है। जब हम प्रिया के सौन्दर्य का बार-बार स्मरण करते हैं तो उसमें केवल प्रिया का वस्तुगत सौन्दर्य नहीं आता, उसमें अपनी समस्त कल्पना, भावना के साथ हम आते हैं। रवीन्द्रनाथ ने इस प्रक्रिया को उजागर हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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