Book Title: Kalidas aur Vikram par Ek Vichar
Author(s): Suryanarayan Vyas
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 2
________________ 642 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय आज से बहुत पूर्व 11 वीं शती में सोमदेव ने कथासरित्सागर की रचना की है. उस समय सोमदेव को दो विक्रम होने का पूर्ण ज्ञान था. यह ग्रंथ द्वितीय विक्रम के पश्चात् ही बना है. उस समय यदि प्रथम विक्रम की ख्याति न होती तो वह एक ही का उल्लेख कर सकता था. उसे काल्पनिक-भ्रमविस्तार की आवश्यकता क्यों होती? इस कथाग्रंथ के रचना-काल में सोमदेव यह स्पष्ट जानता है कि उज्जैन का विश्रुत नरेश विक्रम है, और पाटलिपुत्र का अन्य विक्रम भी है. उक्त कथाग्रंथ के 18 वें लम्बक, प्रथम तरंग में स्पष्ट है (क) उज्जयिन्यां सुतः शूरो, महेन्द्रादित्यभूपतेः / (ख) श्राक्रमिष्यति सद्वीपां पृथिवीं, विक्रमेण यः / * म्लेच्छसंघान् हनिष्यति / (ग) भविष्यत एवैष विक्रमादित्यसंज्ञकः / इस तरह विभिन्न स्थानों पर उज्जैन के विक्रम का उत्कृष्ट वर्णन किया है. आगे इसी लम्बक के तृतीय तरंग में विक्रम की विजययात्रा से वापिस उज्जैन पहुँच जाने पर उनके सेनानी विक्रमशक्ति ने उन अनेक राजाओं का, जो स्वागतार्थ उपस्थित थे, वर्णन किया है. यह वर्णन तत्कालीन स्थिति जानने में सहायक हो सकता है: "गौडः शक्ति कुमारोऽयम् , कर्णाटोऽयं जयध्वजः / लाटो विजयवर्माऽयम् काश्मीरोऽयं सुनन्दनः / गोपाल: सिन्धुराजोऽयम् , भिल्लो बिन्ध्यबलोप्यवम् / निर्मुकः पारसीकोऽयम्, नपः प्रणमति प्रभो।" इन विविध देशीय नरेशों के प्रणाम-परिचय के पश्चात्-- सम्राट सम्मानयामास सामन्नान्सैनिकानपि / सम्राट विक्रम ने सामन्तों और सैनिकों का सम्मान किया है. इस प्रकार 18 वा लम्बक अवंतीपति के वर्णन से भरा हुआ है. और उक्त ग्रंथ में चौथी तरंग, एवं सप्तम लम्बक में स्वतंत्र रूप से लिखा है कि-'विक्रमादित्य इप्यासीद्राजा पाटलिपुत्रके' यानी पाटलिपुत्र में राजा विक्रम था. यहां 'सम्राट्' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है. तथा-'अस्ति पाटलिपुत्राख्यो भुवोऽलकरणंपुरम्, तत्र विक्रमतुगाख्यो राजा' आदि. इस प्रकार विक्रम के दो होने की जानकारी ११वीं शती के सोमदेव को अवश्य थी, क्षेमेन्द्र, और गुणाढ्य भी यह जानते थे. ये ग्रंथकार चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद हैं. यदि एक मात्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ही विक्रम होता तो इन्हें उज्जैन के और पाटिलपुत्र के दो विक्रमों की चर्चा करने की आवश्यकता नहीं रहती. ये आज से सैकड़ों साल पहिले उत्पन्न ग्रंथकार हैं. स्मिथ की भ्रान्ति इन्हें स्पर्श नहीं कर सकती है. और इनके उल्लेख को महज कथा कहकर टाला नहीं जा सकता. ऐसी स्थिति में स्मिथ, हार्नेल, कीथ आदि आधुनिकों की भ्रान्त धारणाओं का कोई मूल्य नहीं रहता. विक्रमादित्य को केवल विदेशी विद्वानों की कसौटी पर नहीं लगाया जा सकता, उसके तथ्यान्वेषण के लिये प्राचीन साहित्य का अनुशीलन आवश्यक है. संस्कृति के कथाग्रंथों, काव्यवर्णनों की तरह ही जैन-साहित्य के अनेक ग्रंथों में, जिनकी संख्या 50 से अधिक है, स्वतंत्र उज्जयिनीपति विक्रम की विभिन्न चर्चाएँ आई हैं. कालक-कथा आदि को केवल कथा-ग्रंथ कहकर हम उपेक्षित नहीं कर सकते. इन सभी पर तथ्यान्वेषक दृष्टि से विचार किया जाना जरूरी है. ये अपना महत्त्व रखते हैं तथा इतिहास और तथ्य पर आधारित हैं. Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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