Book Title: Jivtattva Vivechan Author(s): Milapchand Katariya Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ ३६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय श्रध्याय आत्मा में क्रोध भाव उत्पन्न होने पर मुखाकृति का भयंकर बनना, भृकुटि चढ़ना, चक्षुका लाल होना आदि. इसी तरह हर्ष होने पर मुख का प्रफुल्लित होना, भय होने पर शरीर का कांपना, कामभाव होने पर कामेन्द्रिय में उत्तेजना होना यह सब शरीर पर होने वाला आत्मा का असर है. तथा बाल शरीर की अपेक्षा युवा शरीर में ताकत का अधिक होना, वृद्धावस्था में ताकत का घट जाना व स्थूल शरीर वाले पुरुष को दौड़ने-कूदने में कठिनाई का अनुभव होना, हाड़ मांसमय एकसमान देह होते हुए भी स्त्री और पुरुष की भिन्न-भिन्न आकांक्षा होना अर्थात् स्त्री को पुरुष से रमण करने की और पुरुष को स्त्री से रमण करने की इच्छा होना इत्यादि उदाहरण शरीर का असर आत्मा पर पड़ने के हैं. प्रश्न- - अगर शरीर और आत्मा का इतना घनिष्ठ संबंध है तो दोनों को भिन्न न मानकर शरीर को ही आत्मा क्यों न मान लिया जावे ? उत्तर- - दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है. एक चेतन है दूसरा अचेतन है. अतः दोनों एक नहीं माने जा सकते हैं. अगर शरीर ही जीव हो तो मूर्छावस्था में शरीर के रहते भी वह अचेत क्यों हो जाता है ? और निद्रावस्था में कर्ण, रसना आदि इंद्रियों के होते हुए भी वह विषय को ग्रहण क्यों नहीं करता है. कोई मनुष्य शरीर और इंद्रियाँ ज्यों-कीत्यों रहने पर भी पागल कैसे हो जाता है ? इससे प्रकट होता है कि शरीर और आत्मा ये दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं. जीव का स्वरूप जैन शास्त्रों में निम्न गाथा में कहा गया है जीवो उपयोगमश्र, श्रमुत्तो कत्ता सदेहपरिमाणो, भोत्ता संसारस्यो, सो सो गई। सिद्धो चिसो - द्रव्य संग्रह : नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती जीव चैतन्यमय है जीता है, उपयोगमय है यानी शाता हष्टा है, अमूर्तिक यानी इंद्रियों के अगोचर है, अच्छे-बुरे कार्यों का करने वाला है, उसका आकार अपना देह प्रमाण है, और वह सुख-दुख का भोक्ता है. वह संसार में रह रहा है अर्थात् अनेक योनियों में जन्म मरण करता रहता है, शुद्ध स्वरूप से सिद्ध के समान है और ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है. सब द्रव्यों में एक पुद्गल ही ऐसा द्रव्य है जो रूपी यानी दीखने में आता है, शेष सब अरूपी हैं. कुछ पुद्गल ऐसे भी होते हैं जो अपनी सूक्ष्मता से नेत्रगोचर नहीं भी होते हैं तथापि वे यंत्रादि के द्वारा ग्रहण योग्य होने से रूपी ही माने जाते हैं. जैसे गंध, शब्द, हवा आदि कुछ ऐसे भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल होते हैं जो सभी इन्द्रियों के अगोचर होने पर भी पुद्गल की जाति के ही माने जाते हैं जैसे कार्मणवर्गणा. जब कोई पुद्गल विशेष रूपी होकर भी अपनी सूक्ष्मता की वजह से नेत्रगोचर नहीं होते हैं तब जीवद्रव्य तो अरूपी है, वह दृष्टिमें तो क्या अन्य किसी भी इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण में नहीं आ सकता है इसी से भ्रम में पड़कर कई लोग कहने लगते हैं कि यह शरीर ही जीव है, शरीर से भिन्न कोई जीव नाम का द्रव्य नहीं है. किन्तु ऐसा समझना मिथ्या है. आत्मा सूक्ष्म अरूपी होने से भले ही आँखों आदि से ग्रहण में नहीं आता है तथापि जो देखने जानने वाला है, किसी की इच्छा करता है और जिसको हर्षं सुख-दुख का अनुभव होता है, वही आत्मा है. आत्मा के होने से ही प्रत्येक प्राणी को उसके शरीर के छिन्न-भिन्न करने से दुख होता है. आत्मा के निकल जाने पर मुर्दा शरीर को काटने जलाने आदि से कोई पीड़ा नहीं होती है. इससे जाहिर होता है कि आत्मा और शरीर दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं. उसके अलावा स्मृति जिज्ञासा, संशयादि ज्ञान विशेष आत्मा के गुण हैं, उनका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होने से उन गुणों वाला आत्मा भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि गुण से गुणी भिन्न नहीं रहता है. जहाँ गुण है वहाँ गुणी भी अवश्य होता है. जैसे रूपादि गुण प्रत्यक्ष होने से उन गुणों का धारी घट भी प्रत्यक्ष है. -- प्रश्न -माना कि गुण और गुणी अभिन्न हैं किन्तु शरीर ही आत्मा होने से वही गुणी है और ज्ञान उस शरीर का गुण है. ऐसा क्यों न मान लिया जाय ? उत्तर- - ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि घट की तरह शरीर मूर्तिवान् और चक्षुगोचर है. वह अमूत्र्तिक ज्ञानादि गुणों का आधार गुणी नहीं हो सकता. गुण और गुणी में अनुरूपता होती है— निरूपता नहीं. अतः ज्ञानादि गुण जिसमें हैं वह शरीर से भिन्न अन्य कोई अरूपी द्रव्य है और वही आत्मा है. Jain Edun Intonal 13. BESA 40ww.jalneffbrary.orgPage Navigation
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