Book Title: Jivdaya ka Vishleshan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ जीव दया का विश्लेषण जीव दया के प्रकार १. जीवदया का एक प्रकार पुण्यभाव रूप है। पुण्यभाव रूप होने के कारण उसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्व में ही होता है, संवर और निर्जरा में अन्तर्भाव नहीं होता। यह पुण्यभाव रूप जीवदया व्यवहार-धर्मरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारण है। इस बात को आगे स्पष्ट किया जायेगा । पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य २. जीवदया का दूसरा प्रकार जीव के शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्म रूप है। इसकी पुष्टि धवल पुस्तक १३ के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निम्न वचन के आधार पर होती है करणाए जीवसहायरस कम्मजगिदत्तविरोहादो। अर्थ - करुणा जीव का स्वभाव है अतः इसके कर्मजनित होने का विरोध है । यद्यपि धवला के इस वचन में जीव दया को जीव का स्वतः सिद्ध स्वभाव बतलाया है, परन्तु जीव के स्वतः सिद्ध स्वभाव-भूत वह जीवदया अनादिकाल से मोहनीय कर्म की कोम प्रकृतियों के उदम से विकृत रहती आई है, अतः मोहनीय कर्म की उन कोष-प्रकृतियों के पथास्थान यथायोग्य रूप में होने वाले उपशम, क्षय या क्षयोपशम से जब वह शुद्ध रूप में विकास को प्राप्त होती है तब उसे निश्चयधर्मरूपता प्राप्त हो जाती है। इसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्व में नहीं होता, क्योंकि जीव के शुद्ध स्वभावभूत होने के कारण वह कर्मों के आस्रव और बन्ध का कारण नहीं होती है। तथा इसका अन्तर्भाव संवर और निर्जरा तत्त्व में भी नहीं होता, क्योंकि इसकी उत्पत्ति ही संवर और निर्जरापूर्वक होती है। ३. जीवदया का तीसरा प्रकार अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक होने वाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति के रूप में व्यवहारधर्म रूप है । इसका समर्थन भी आगम प्रमाणों के आधार पर होता है। इसका अन्तर्भाव अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप होने के आधार पर संवर और निर्जरा का कारण हो जाने से संवर और निर्जरा तत्त्व में होता है, और दयारूप पुण्यप्रवृत्ति रूप होने के आधार पर आस्रव और बन्ध का कारण हो जाने से आस्रव और बन्धतत्त्व में भी होता है। कर्मों के संवर और निर्जरण में कारण होने से यह व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीव के शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारण सिद्ध होती है। पुण्यभूत दया का विशेष स्पष्टीकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव सतत विपरीताभिनिवेश और मिथ्याज्ञानपूर्वक आसक्तिवश अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं, तथा कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं। ये जीव यदि कदाचित् अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्ति के साथ सम्यक् अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञानपूर्वक कर्त्तव्यवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो उनके अन्तःकरण में उस अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्ति से घृणा उत्पन्न हो जाती है और तब वे उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं । इस तरह वह पुण्यभावरूप जीवदया अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्तिपूर्वक होने वाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति रूप व्यवहारधर्म की उत्पत्ति में कारण सिद्ध हो जाती है । निश्चयधर्मरूप जीवदया का विशेष स्पष्टीकरण निश्चयधर्मरूप जीवदया की उत्पत्ति भव्य जीव में ही होती है, अभव्य जीव में नहीं। तथा उस भव्य जीव में उसकी उत्पत्ति मोहनीय कर्म के भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप कषायों की क्रोध - प्रकृतियों का यथास्थान यथायोग्य जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9