Book Title: Jivdaya Ek Parishilan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 4
________________ १०६ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ श्रद्धानरूप या अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप या अतत्त्वज्ञानरूप होते हैं । एवं क्रियावती शक्तिके परिणमन संसारावस्था में एक प्रकारसे तो मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ और पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं, दूसरे प्रकार से पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और गुप्त रूप में निवृत्तिपूर्वक मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं और तीसरे प्रकारसे सक्रिय मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके सहारेपर पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित आत्मक्रिया के रूपमें होते हैं । इनके अतिरिक्त संसारका विच्छेद हो जानेपर जीवकी क्रियावती शक्तिका चौथे प्रकारसे जो परिणमन होता है, वह स्वभावतः उर्ध्वगमन रूप होता है। जीवकी क्रियावती शक्तिके इन चारों प्रकारसे होने वाले परिणमनोंमेंसे पहले प्रकारके परिणमन कर्मोंके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्धमें कारण होते हैं । दूसरे प्रकारके परिणमन पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तरूप होने से भव्यजीवमें यथायोग्य कर्मोंके संवरपूर्वक निर्जरण में कारण होते हैं तथा पुण्यरूप शुभ प्रवृत्तिरूप होनेसे यथायोग्य कर्मोके आस्रवपूर्वक प्रकृति प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्ध में कारण होते हैं। तीसरे प्रकारके परिणमन पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित होनेसे केवल सातावेदनीयकर्मके आस्रवपूर्वक प्रकृति तथा प्रदेश बन्धमें कारण होते हैं और चौथे प्रकारका परिणमन केवल आत्माश्रित होने से कर्मोंके आस्रव और बन्धमें कारण नहीं होता है और कर्मोंके संवर और निर्जरणपूर्वक उन कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जानेसे कर्मोंका संवर और निर्जरणका कारण होनेका तो प्रश्न ही नहीं रहता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका विश्लेषण जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारे पर अतत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं, उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं । एवं कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन भी होते हैं, इसी तरह जीवकी भाववती शक्ति के हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं उनसे प्रभावित होकर जीवको क्रियावती शक्तिके एक तो आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं और दूसरे कर्त्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं । संसारी जीव आसक्ति, मोह, ममता तथा राग और द्व ेषके वशीभूत होकर मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप जो लोकविरुद्ध हिंसा, झूठ, चोरी तथा पदार्थोंके अनावश्यक भोग और संग्रह - रूप क्रियाएँ सतत करता रहता है, वे सभी क्रियाएँ संकल्पी पाप कहलाती हैं । इनमें सभी तरहकी स्वपरहितविघातक क्रियाएँ अन्तर्भूत होती हैं । संसारी जीव अशक्ति, मजबूरी आदि अनिवार्य परिस्थितियोंवश मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति रूप जो लोकसम्मत हिंसा, झूठ, चोरी तथा आवश्यक भोग और संग्रहरूप क्रियाएँ करता है, वे सभी क्रियाएँ आरम्भीपाप कहलाती हैं। इनमें जीवनका संचालन, कुटुम्बका भरण-पोषण तथा धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और लोकका संरक्षण आदि उपयोगी कार्योंको सम्पन्न करनेके लिए नीतिपूर्वक की जानेवाली असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य तथा अनिवार्य भोग और संग्रहरूप क्रियाएँ अन्तर्भूत होती हैं । संसारी जीव जितनी परहितकारी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाएँ करता है, वे सभ क्रियाएँ पुण्य कहलाती हैं । इस प्रकारकी पुण्यरूप क्रियाएँ दो प्रकारकी होती हैं-- एक तो सांसारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13