Book Title: Jivan ka Break Sanyam Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • ३२९ की गतिविधि को नियंत्रित करता है और जब जीवन नियंत्रण में रहता है तो वह नवीन कर्मबन्ध से बच जाता है । तपस्या पूर्वसंचित कर्मों का विनाश करती है । इस प्रकार नूतन बंधनिरोध और पूर्वाजित कर्मनिर्जरा होने से आत्मा का भार हल्का होने लगता है और शनैः शनैः समूल नष्ट हो जाता है । जब यह स्थिति उत्पन्न होती है तो आत्मा अपनी शुद्ध निर्विकार दशा को प्राप्त करके परमात्म-पद प्राप्त कर लेती है, जिसे मुक्तदशा, सिद्धावस्था या शुद्धावस्था भी कह सकते हैं। साधना के दो स्तर : गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म : इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में संयम एवं तप की साधना अत्यन्त उपयोगी है । जो चाहता है कि मेरा जीवन नियंत्रित हो, मर्यादित हो, उच्छङ्खल न हो, उसे अपने जीवन को संयत बनाने का प्रयास करना चाहिए। तीर्थङ्कर भगवन्तों ने मानव मात्र की सुविधा के लिए, उसकी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए साधना की दो श्रेणियाँ या दो स्तर नियत किये हैं—(१) सरल साधना या गृहस्थधर्म और (२) अनगार साधना या मुनिधर्म । अनगार धर्म का साधक वही गृहत्यागी हो सकता है, जिसने सामाजिक मोह-ममता का परित्याग कर दिया है; जो पूर्ण त्याग के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने का संकल्प कर चुका है; जो परिग्रहों और उपसर्गों के सामने सीना तान कर स्थिर खड़ा रह सकता है, और जिसके अन्तःकरण में प्राणीमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत हो चुका है। यह साधना कठोर साधना है। विरत सत्वशाली ही वास्तविक रूप से इस पथ पर चल पाते हैं। सभी कालों और युगों में ऐसे साधकों की संख्या कम रही है, परन्तु संख्या की दृष्टि से कम होने पर भी इन्होंने अपनी पूजनीयता, त्याग और तप की अमिट छाप मानव समाज पर अंकित की है । इन अल्पसंख्यक साधकों ने स्वर्ग के देवों को भी प्रभावित किया है । साहित्य, संस्कृति और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में यही साधक प्रधान रहे और मानव जाति के नैतिक एवं धार्मिक धरातल को इन्होंने सदा ऊँचा उठा रक्खा है। जो अनगार या साधु के धर्म को अपना सकने की स्थिति में नहीं होते, वे आगार धर्म या श्रावकधर्म का पालन कर सकते हैं। आनन्द श्रावक ने अपने जीवन को निश्चित रूप से प्रभु महावीर के चरणों में समर्पित कर दिया। उसने निवेदन किया-मैंने वीतरागों का मार्ग ग्रहण किया है, अब मैं सराग मार्ग का त्याग करता हूँ। मैं धर्मभाव से सराग देवों की उपासना नहीं करूँगा । मैं सच्चे संयमशील त्यागियों की वन्दना के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होता हूँ । जो साधक अपने जीबन में साधना करते-करते, मतिवैपरीत्य से पथ से विचलित हो जाते हैं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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