Book Title: Jiva jiva bhigam Sutra
Author(s): Prakash Salecha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 2
________________ 1262, - जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क और प्रकृति के रूप में एवं बौद्धों ने विज्ञानघन और वासना के रूप में स्वीकार किया है। वैदिक दर्शन ने आत्म-तत्त्व व भौतिक तत्त्व के रूप में इसी बात को मान्यता प्रदान की है। अत: इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आस्तिक दर्शनों के मूल में भी आत्मवाद को स्वीकार किया गया है। विशेषकर जैन दर्शन ने आत्म-तत्त्व का बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विस्तृत विवेचन किया है! जैन चिन्तन धारा का प्रारम्भ ही आत्म तत्त्व से होता है और अन्त मोक्ष में ! ग्यारह अंगों में प्रथम अंग आचारांग सूत्र का आरम्भ भी आत्म-जिज्ञासा से हुआ है। उसके आदि वाक्य में ही कहा गया है- संसारस्थ अनेक जीवों को यह ज्ञान नहीं होता है कि उनको आत्मा किस दिशा से आई है और कहाँ जायेगी, वे यह भी नहीं जानते कि उनकी आत्मा जन्मन्तर में संचरण करने वाली है या नहीं, मैं पूर्वजन्म में कौन था और यहाँ से मरकर दूसरे जन्म में क्या होऊँगा, यह भी वे नहीं जानते हैं। इस प्रकार की आत्म जिज्ञासा से ही धर्म और दर्शन का उद्गम हुआ है। अत: जैन दर्शन द्वारा मान्य नव तत्त्वों में प्रथम तत्व जीव एवं अन्तिम तन्व मोक्ष है। बीच के सान तत्त्वों का निर्माण इन दो तत्त्वों के विभाव व सद्भाव में होता है। सुख देने वाला पुद्गल समूह पुण्य तत्त्व है। दुःख देने वाला और ज्ञानादि पर आवरण करने वाला पाप तत्त्व है। आत्मा की मलिन प्रवृत्ति आस्रव है। इस मलिन प्रवृत्ति को रोकना संवर है. कर्म के आवरण का आंशिक क्षीण होना निर्जस है। कर्मपुट्गलों का आत्मा के साथ बंधना बंधतत्त्व है। कर्म के आवरणों का सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष है। प्रथम प्रतिपत्ति तीर्थंकर परमात्मा के प्रवचन के अनुसार ही स्थविर भगवन्तों ने जीवाभिगम व अजीवाभिगम की रचना की है अर्थात् प्रज्ञापना की है: अल्प विवेचन होने के कारण पहले अजीवाभिगम का कथन किया गया है। अजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है- रूपी अजीवाभिगम एवं अरूपी अजीवाभिगम। अरूपी अजीवाभिगम के दस भेद बताये गये हैं। धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश; अधर्मास्तिकाय के स्कंध, देश, प्रदेश, आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और दसवाँ काल। . जैन दर्शन के अनुसार जीव और पुद्गल को गति कराने में धर्मास्तिकाय एवं जीव व पुद्गल को स्थिति प्रदान करने में अधर्मास्तिकाय सहायक है। आकाश और काल को अन्य दार्शनिकों ने स्वीकार किया है. परन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को जैन दर्शन के सिवाय किसी ने भी नहीं माना है। जैन सिद्धान्त को अपनी यह सर्वथा मौलिक अवधारणा है। इस अवधारणा के पीछे प्रमाण व युक्ति का सुदृढ आधार है। जैनाचार्यों ने प्रमाणों से सिद्ध किया है कि लोक-अलोक की व्यवस्था के लिए कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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