Book Title: Jine Ki Kala Karm Me Akarm Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 4
________________ में कर्म-क्रियाशीलता और भीतर में अकर्म-राग-द्वेष की भावना से अलिप्तता, यह जीवन की उच्च वृत्ति है, श्रेष्ठ अवस्था है।। 'कर्म में अकर्म' हमारे उच्च एवं पवित्र जीवन की परिभाषा है। अब यह प्रश्न है, यह अवस्था कैसे प्राप्त की जाए ? कर्म में अकर्म रहना कैसे सीखें, इसकी साधना क्या है ? कर्तृत्व बुद्धि का त्यागः दर्शन और मनोविज्ञान, इस बात पर एक मत हैं कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर 'कर्त त्वबुद्धि' की स्फुरणा होती है। साधारण मनुष्य कुछ करता है, तो साथ ही सोचता भी है कि "यह मैंने किया, इसका करने वाला मैं हूँ।" कार्य के साथ कर्तापन की भावना स्फुरित होती है। और प्रत्येक कार्य के बीच में वह अपने 'मैं' 'अहं' को खड़ा कर देता है। वह सोचता हैं-मैं नहीं होता, तो यह काम नहीं होता । मैंने ही यह किया है, मेरे बिना परिवार की, समाज की गाड़ी नहीं चल सकती। इस प्रकार 'मैं' के, कर्ताबुद्धि के हजार-हजार विकल्प एक तूफान की तरह उसके चिन्तन में उठते हैं और परिवार तथा समाज में अशान्ति व विग्रह की सृष्टि कर डालते हैं। व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन और राष्ट्रिय जीवन--सभी आज इसी तूफान के कारण प्रशान्त है, समस्याओं से घिरे हैं। परिवार में जितने व्यक्ति हैं, सभी के भीतर 'मैं' का विषधर-नाग फुकार मार रहा है, राष्ट्र में जितने नागरिक है, प्रायः प्रत्येक अपने कर्तत्व के 'अहं' से बौराया हुआ-सा है। इस प्रकार एक-दूसरे का 'अहं' टकराता है, वैरविद्वेष की अग्नि स्फुलिंग उछलते हैं, अशान्ति फैलती है और जीवन संकटग्रस्त बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि यह कर्तापन की बुद्धि ही मनुष्य को शान्त नहीं रहने देती। शान्ति की खोज आप करते हैं, आपको शान्ति चाहिए, तो फिर आवश्यक है कि इस कर्तृत्व-बुद्धि से छुटकारा लिया जाए, तभी अशान्ति से पिण्ड छूट सकेगा, अन्यथा नहीं। ___ कलकत्ता चातुर्मास के लिए जाते समय मैं बिहार की सुप्रसिद्ध 'गया' नगरी में भी गया था। वहाँ एक फल्ग नदी है। प्राचीन वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में उसका काफी वर्णन है। बुद्ध ने तो कहा है--'सुद्धस्स वे सदा फग्गु" शुद्ध मनुष्य के लिए सदा ही फल्गु है । अब तो वह प्रायः सूख गई है। फिर भी उसे पवित्र मान कर श्राद्ध करने के लिए वहाँ आए दिन काफी लोग आते रहते हैं। मैंने श्राद्ध के निमित्त आए एक सज्जन से पूछा--"घर पर भी आप लोग श्राद्ध कर सकते हैं, फिर 'गया' पाकर फल्गु नदी के जल से ही श्राद्ध करने का क्या मतलब है?" उस सज्जन ने बताया--"गयाजी में श्राद्ध कर लेने से एक ही साथ सब पितरों का श्राद्ध हो जाता है, सबसे सदा के लिए पिण्ड छूट जाता है।" मैने सोचा-"जिस प्राचार्य ने यह बात कही है, उसने काफी गहराई से सोचा होगा। आदमी कहाँ तक बड़े-बूढ़ों को सिर पर ढोए चलेगा, कहाँ तक मृत पूर्वजों को मन-मस्तिष्क में उठाए फिरेगा, आखिर उनसे पिण्ड छुड़ाना ही होगा, सबको 'बोसिरेबोसिरे' (परित्याग) करना ही होगा। जीवन में कर्तृत्व के जो अहंकार हैं-मैंने यह किया, वह किया—के जो संकल्प है, आप इनको कबतक सिर पर ढोए चलेंगे? इन अहं के पितरों से पिण्ड छुड़ाए बिना शान्ति नहीं मिलेगी। जीवन में कब तक, कितने दिन तक ये विकल्प ढोते रहेंगे, कबतक इन मुर्दो को सिर पर उठाए रखेंगे। जो बीत गया, जो कर डाला गया, वह प्रतीत हो गया, गजर गया। गुजरा हुअा, याद रखने के लिए नहीं, भुलाने के लिए होता है। पर, जीवन की स्थिति यह है कि यह गुजरा हुअा कर्तृत्व भूत बनकर सिर पर चढ़ जाता है और रात-दिन अपनी 'मैं' 'मैं' आवाज लगाता रहता है। न स्वयं व्यक्ति को चैन लेने देता है, न परिवार और समाज को ही! -१. मज्झिमनिकाय, १७१६ ३५८ पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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