Book Title: Jina pratima aur Jainacharya
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 3
________________ जिनप्रतिमा और जैनाचार्य "वंदणविहाणपूयणकमेण काऊण सिद्धपडिमाणं । अह ते कुमारसीहा चेइयभवणा पइसरंति"॥ [१७० पृ. २४ ] अर्थात्-वे राजकुमार सिद्धप्रतिमात्रों का यथाक्रम विधिपूर्वक बंदन पूजन करके चैत्यभवन से बाहर अाते हैं। इस उल्लेख से प्रतिमा पूजन को जो समर्थन प्राप्त होता है वह किसी अन्य स्पष्टीकरण की अपेक्षा नहीं रखता। बृहत्कल्प' भाष्य-बृहत्कल्प भाष्य की निम्न लिखित गाथा में अदृष्टपूर्व युगप्रधान प्राचार्यों तथा विशुद्ध संयमी श्रुत सम्पन्न साधुअों एवं पुराणे और नये चैत्यों-प्रतिमाओं को बन्दनार्थ जाने का उल्लेख है "अपुव्वविवित्तबहुस्सुश्रा य परियारवं च श्रायरिया। परिवार बजसाहू. चेहय पुब्वा अभिनवा वा। (२७५३ पृ. ७७६) यहां पर उल्लेख किये गये पुरातन और नवीन चैत्यों का अर्थ पुराणी और नई जिन प्रतिमायें ही संभव हो सकता है। टीकाकार ने भी यही अर्थ किया है___"चैत्यानि पूर्वाणि वा चिरंतनानि जीवंत स्वामिप्रतिमादीनि अभिनवानि तत्कालकृतानि-एतानि ममादृष्टपूर्वाणि इति बुध्या तेषां वन्दनाय गच्छति" अर्थात् यहां पुरातन से जीवंत स्वामी की प्रतिमा आदि को समजना और अभिनव से उस समयकी प्रतिष्ठित प्रतिमायें जाननी। १. बृहत्कल्पभाष्य के रचयिता युगप्रधान आचार्य संघदास गाणि क्षमाश्रमण हैं। इनका समय विक्रम की सातवीं शताब्दी के पूर्व है और ये जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से कुछ प्राचीन हैं। पंचकल्पभाष्य और वसुदेव हिण्डी ये दोनों इन्ही की कृतियां हैं। [जैन सा. का इतिहास. ६.१४१] २. जीवंत स्वामी नाम की तीर्थकर प्रतिमा का प्राचीन जैनग्रन्थों में अनेक जगह उल्लेख पाया जाता है, उनके देखने से वह अत्यन्त प्राचीन प्रमाणित होती है। निशीथचूर्णि कल्पचूर्णि और आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों से सिद्ध होता है कि,-आचार्य महागिरि तथा प्राचार्य सुहस्ति श्री जीवंत स्वामी की प्रतिमा के वादनार्थ विदिशा और उज्जयनी में गये। यथा अण्णया आयरिया बिति दिसे जिय पडिमं वंदियागता (निशी. चू. पृ. १६१) दोविजणा वितिदिसंगया, तत्थ जियपार्टमं बंदित्ता अज्ज महागिरी एकच्छं गया गयग्ग पद बंदया xxx सुहत्थी वि उज्जेणि जियपडिमं वंदियागया (आ. चूर्णि) (ग) “इत्तों अज्जसुहत्त्थी उज्जेणि जियसामि वंदओ आगो" (कल्पचूर्णि) आर्यमहागिरी और आर्य सुहस्ति ये दोनों आर्य स्थूलभद्र के हस्त दीक्षित शिष्य हैं। इनकी दीक्षा वीर निर्वाण १६१ और २२१ में तथा युग प्र. २१५ और २४५ में हुआ [वीरनि. सम्बत् और जैनकालमणना पृ. ६४] इससे साबित होता है कि विक्रमपूर्व तीसरी शताब्दीसे भी बहुत पहले जीवंत स्वामी नाम की तीर्थंकर प्रतिमा जैन परम्परा में विशेष प्रख्यात थी। अताएव दूर दूर से भाविक गृहस्थ तथा संभावित मुनिवर्ग उसके दर्शनार्थ आते थे। इसका सबूत वसुदेव हिण्डी के निम्न लिखित काश से भी मिलता है "तेण सत्येण समं बहुसिस्सिणीपरिवारा जिणवयणसारदिट्ठपरमत्था सुब्वया नाम गणिणी जीवंतसामिवंदिया वच्चइ०" [पृ. ६१] अर्थात् संघ के साथ अनेक शिष्याओं से परिवृत्त जिन प्रवचन के परमार्थ को जानने वाली सुव्रता नाम की गणिनी-प्रवर्तिनी जीवन्त स्वामी को वन्दना करने के लिये उज्जयिनी को जा रही थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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