Book Title: Jina aur Jinashasan Mahatmya Author(s): Sukanmal Pravartak Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 6
________________ आनन्द घन के रूप में अनंत काल तक रहेंगे। परन्तु जो अरिहंत सयोगी केवली जिन हैं, उनके चौंतीस, अतिशयों की संख्या मानी जाती है। जिनके मूल में तीन भेद हैं। १. सहज अतिशय २. कर्म क्षय जन्म अतिशय ३. देवकृत अतिशय जिन भगवान की देशना . जिन भगवान वीतरागता के कारण किसी का भला बरा करने की भावना से रहित है। वे कृत-कृत्य हैं। परन्तु सयोग अवस्था में रहते अपनी जिन अनुभूतियों को वाणी द्वारा व्यक्त करते हैं, शास्त्रों में उसके लिए देशना शब्द का प्रयोग किया गया है। जो प्राणी मात्र के लिए हितकारी सारगर्भित और अर्थ गांभीर्य से सम्पन्न होती है। औपपातिक सूत्र में उस देशना का संकलन किया गया है। जिसके कुछ एक मुख्य बिन्दु इस प्रकार है - जीवादि नव तत्वों का उपदेश, जीव का स्वरूप, उपयोग के भेद प्रभेद, जीव के मात्र लोक स्वरूप कर्म बंध के कारणों का निरुपण, इन्द्रिय जय के उपाय, आत्मानुशासन की उपाय धर्म का स्वरूप और उसके फल का वर्णन मिथ्यात्य व सम्यक्त्व का स्वरूप और उनके भेद का फल आदि श्रावक धर्म श्रमण धर्म मोक्ष मार्ग का वर्णन आदि। विशेष जानकारी के लिए आगमों को देखिये। जिन शासन - जिन की यही देशना जिन शासन कहलाती है। ऊपर जिस देशना का संकेत किया गया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शासक और शासित का भेद नहीं है किन्तु शासन व्यवस्था की नीति आत्मानुशासन है। स्वयं का शासन स्वयं करो। उस शासन में दंड व्यवस्था दूसरे के द्वारा लादी नहीं जाती है। स्वयं प्रायनिश्चित करना ही उसका आधार है। इसका क्षेत्र नदी, पहाड़ों या समुद्रों से घिरा हुआ नहीं है अपितु अनन्त आत्माओं में व्यापक है उसकी छत्र छाया में विश्राम करने वाले हजारों, लाखों, करोड़ों नहीं अनन्त जीव है। सबको जीने का अधिकार है। वर्ग जाति सम्प्रदाय या समाज आदि किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। और समता के धरातल पर सब को अपना विकास करने का अधिकार है। संसार सागर में निमग्न अथवा भवाटवी में भटकने वाले प्राणियों को अपना उद्धार करने की प्रेरणा देने वाला है। सुख रूप उस स्थान को प्राप्त कराने वाला है। अभ्युदय (लौकिक उन्नति और निःश्रेयस) (लोकोत्तर अतीन्द्रिय सुख) का साधन है। जिन शासन का दूसरा नाम जिन तीर्थ भी है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन चारित्र के समूह को तीर्थ कहते हैं। यह तीर्थ संसार समुद्र से जीवों को तिराने वाला है। तैरने वालों की योग्यता स्थिति को ध्यान में रखकर उसके चार प्रकार माने गये हैं १. साधु, २. साध्वी, ३. श्रावक, ४. श्राविका। अहिंसा आदि पंच महाव्रत धारी सर्व विरक्त पुरुष को साधु और स्त्री को साध्वी कहते हैं। इसी प्रकार देश विरत पुरुष श्रावक और स्त्री श्राविका कहलाती है। जिनशासन की विशालता - उपर्युक्त संकोतों से जिनशासन की विशालता उदारता पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। फिर भी कुछ और स्पष्टता के लिए जिनशासन की विशालता का संकेत करते हैं। जिनके द्वारा बताये गये मार्ग को अंगीकार करने वाला कोई भी व्यक्ति जिनानुयायी बन सकता है। जिन शासन का नागरिक बन सकता है। इसमें देश, काल, जाति आदि बाधक नहीं बन सकते हैं। सिर्फ एक शर्त है कि भिन्न वेश की भिन्न क्रिया भिन्न परम्परा के होते हुए भी उनको चित्तोपशमन की साधना में रत रहना चाहिए। - (२७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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