Book Title: Jan Shasan aur Jin Shasan Author(s): Santbal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ मुनि सन्तबाल : जनशासन और जिनशासन : ५१५ का कोषागार समाप्त नहीं को इससे परहेज है. आपके प्रकार कह कर शालिभद्र की प्रजा का धन अन्तःपुर के वैभव में व्यय नहीं किया जा सकता, मगधराज उसकी कद्र करने वाले हमारे जैसे मगध के नागरिक मौजूद हैं." इस रत्न कम्बल बीस लाख जितनी स्वर्ण-मुहर देकर पल भर में खरीद ली और दूसरे सोलह कम्बलों की मांग की. कलाकार, दांतों तले उंगली दबा कर रह गया. हो गया है किन्तु पास जो कला है माताजी ने सोलह X X X राज्य का अक्षय भंडार राजा का नहीं, राजा तो केवल प्रजा का पालक है ! बत्तीस-बत्तीस रत्न कम्बल क्रय करने वाले धनिकों को धन का अभिमान नहीं ! उन्हें राष्ट्र का अभिमान है. कला की कद्रदानी है. [ २ ] जिस शालिभद्र के पास इतना विशाल धनभंडार था, जिसके घर में देवों की समृद्धि ठिली पड़ी थी, उस शालिभद्र के पास श्रेणिक राजा स्वयं पहुंचता है. शालिभद्र की माता भद्रा का हृदय आनन्द- पुलिकित बन जाता है. सत्ता स्वयं जनता के सामने झुकने आती है, माता भद्रा विचार करती है— 'राजा कैसा ही क्यों न हो आखिर प्रजा की सुरक्षा करने वाला पालक पिता सरीखा है.' शालिभद्र को उससे मिलने के लिये नीचे बुलाया जाता है. शालिभद्र भेंट तो अवश्य करता है पर उसके मन में क्या विचार उत्पन्न होता है ? 'सत्ता से सत्य महान् है. सत्य साधना की सच्ची सत्ता तो भगवान् महावीर के पास है.' और वह भगवान् महावीर के पास जाकर जैन साधुदीक्षा अंगीकार कर लेता है. X X X मानवधन और देवधन की अपेक्षा साधुधन सर्वोपरि है. विशाल समृद्धि और सत्ता की अपेक्षा वात्सल्य सत्ता महान् है. [ ३ ] जिनशासन के एक दृढ़ स्तंभ के सदृश पुणिया श्रमणोपासक के पास न कोई सम्पत्ति है और न कोई सत्ता ही है. परिश्रम करके न्यायसम्पन्न आजीविका प्राप्त करने की परम आत्मिक सम्पत्ति ही उसके पास है. और प्राणिमात्र के साथ 'सब्वभूयप्पभूयस्स' की महान् आत्मिक सम्पत्ति का वह स्वामी है. इसी कारण राजा श्रेणिक एक बार याचक बन कर उसके आंगन में आकर याचना करता है- 'पुणियाजी, आप अपनी एक सामायिक मुझे दे सकते हैं ?' पुणिया कहता है- सामायिक आत्म-दशा है जो आपके पास ही है. प्राणि मात्र की हृदय गुफा में वह प्रकाशित होती है. वह लेने-देने की वस्तु नहीं है. श्रेणिक नरपति समझ गया. X X इन तीन घटनाओं से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि पुणिया जैसे श्रावकों और शालिभद्र जैसे साधुओं से जिनशासन अपना कर्तव्य पालती है पर श्रेणिक जैसा नृप समझ जाता है कि सत्य बड़ा है. इस कारण अन्ततः जिनशासन की अनुपम सेवा की शोभा है. भद्रामाता प्रजा और राज्य के प्रति राजा की अपेक्षा प्रजा बड़ी है और प्रजा की अपेक्षा करके वह तीर्थंकर गोत्र उपार्जित कर लेता है. X X X आज पंचम काल चल रहा है. जिनशासन की इमारत डगमगा चुकी है. क्योंकि जनशासन का पाया हिल गया है. परिणामस्वरूप दुनिया में जैसे राज्यशासन का बोलबाला है, उसी प्रकार भारत में भी बोलबाला होने लगा. तब एक धर्मवीर पुरुष आगे आया. उसका नाम था महात्मा गांधी. उसने ब्रिटिश शासन की सर्वोच्चता को चुनौती दी. कहा--"स्वच्छंद राज्य के कानून की और सेना की सत्ता महान् X Pavan Kelibrary.orgPage Navigation
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