Book Title: Jaisi Karni Vaisi Bharni par Ek Tippani
Author(s): Rajendraswarup Bhatnagar
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 3
________________ ३०० ] [ कर्म सिद्धान्त एक उदाहरण लें : 'क' ने 'ख' को चाकू से मार डाला। 'क' पकड़ा जाता है। उसे दण्ड मिलता है-उसे आजीवन कारावास दिया जाता है। इस स्थिति में 'चाकू मारना' तथा 'ख का मरना' कारण कार्य के रूप में देखे जा सकते हैं तथा प्रक्रिया एवं परिणाम के रूप भी । 'ख का मरना' क के लिए उसके कर्म का फल नहीं माना जायगा। अपितु 'क' का इस कर्म के लिए दण्ड पाना फल कहा जायगा। स्वयं 'क' की दृष्टि से देखें तो कदाचित् वह 'ख' को केवल जख्मी करना चाहता था, अथवा. कदाचित् वह अपने तीव्र रोष को व्यक्त करना चाहता था। ऐसी अवस्था में फल के सम्बन्ध में 'क' की क्या अपेक्षा हो सकती थी? शायद यह कि 'ख' उसकी ताकत को पहचाने। अब 'ख' के चोट लगना, उसके . प्रारणों का घात, तथा 'क' की ताकत की पहचान 'ख' के लिए, ये एक ही बात नहीं है, और परिणामस्वरूप परिणाम, कार्य तथा फल भी एक ही चीज नहीं है। कर्म फल की संगति की दृष्टि से, यदि 'क' न्यायिक दृष्टि से दोषी था, तो उसका दण्ड पाना, संगति की पुष्टि के रूप में देखा जायगा। परन्तु 'क' (मान लीजिए, वह विवाहित है, उसके बच्चे हैं) की पत्नी तथा बच्चों को किस कर्म का फल मिला ? वे हत्यारे के परिवार के सदस्य कहलायेंगे, उनके जीवन यापन पर संकट आयेगा, बच्चों के पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा-ये सब उनके किस कर्म से जोड़ा जाय ? इसी प्रकार, जिसकी हत्या हुई है, उसके परिवार के सदस्यों के सम्बन्ध में प्रश्न उठता है। स्थिति के ये दूसरे पक्ष कर्मफल संगति पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं । उपर्युक्त उदाहरण से अनेक उलझनों की ओर ध्यान जाता है । परिणाम, कार्य अथवा फल की अवधारणाओं का परस्पर क्या सम्बन्ध है? फल की बात करते समय हम एक सिलसिले में किसी एक कड़ी को क्यों चुनते हैं ? इस विश्लेषण में घटनाओं को सामाजिक अर्थ देने से किस प्रकार की जटिलता उत्पन्न होती है ? आदि। दूसरे जिन अवस्थाओं में फल तथा कर्म की संगति बैठती नहीं दीखती वहां किस प्रकार की व्याख्या सन्तोषजनक हो सकती है ? इन प्रश्नों के आलोक में एक बार कर्म के जीवनवृत्त पर पुनः दृष्टि डालें। हमने कर्म की विभिन्न अवस्थाओं को निम्नलिखित रूप में लिया : इच्छा, संकल्प, उद्यम तथा परिणाम (लक्ष्य की प्राप्ति/अप्राप्ति)। विश्लेषण की दृष्टि से कर्म के रूप का यह बड़ा सीधा सादा तथा स्पष्ट चित्रण मालूम पड़ता है। परन्तु यह अपर्याप्त विश्लेषण का परिणाम है, तथा केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही सरल स्थिति है। यह अनावश्यक रूप में सरल क्यों है, इसमें किस प्रकार की जटिलताएँ हैं ? इनकी ओर ध्यान दें। पहले तो 'इच्छा' स्वयं एक परिणाम है। किसी कर्म विशेष को अलग करने के प्रयास में ही हम उसे किसी इच्छा विशेष से जोड़ते हैं । परन्तु उसकी विशद समझ के लिए 'इच्छा' को समझना आवश्यक होता है। न्यायिक सन्दर्भ में बहुधा कर्म की प्रेरणा के विषय में प्रश्न उठाया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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