Book Title: Jaipur Tattvacharcha Ek Samiksha
Author(s): Prakash Hitaishi
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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Page 4
________________ ६४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन -ग्रन्थ ६. दोनों ओरसे शंका-समाधानके रूपमें जिन लिखित पत्रोंका आदान-प्रदान होगा, उनमेंसे अपने-अपने पर अधिक से अधिक ५-५ विद्वानों और मध्यस्थकी सही होगी। इसके लिए दोनों पक्षोंकी ओरसे अधिक से अधिक ५-५ प्रतिनिधि नियत होंगे। ७. किसी एक विषय संबंधी किसी विशेष प्रश्नपर शंका-समाधान के रूपमें पत्रोंका आदान-प्रदान अधिकसे-अधिक तीन बार तक होगा । दिनांक २२ अक्तूबर १९६३ से पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजकी उपस्थितिमें २३ विद्वानोंकी उपस्थिति में चर्चा विषयक नियमोंमें एक नियम यह भी स्वीकृत किया गया - ८. चर्चा में सामाजिक, पंथसम्बन्धी तथा व्यक्तिके सम्बन्धमें कोई चर्चा न होगी । पश्चात् श्रीमान् पं० वंशीधरजी न्यायालंकार इंदौर मध्यस्थ चुने गये । प्रतिनिधियोंका चुनाव इस प्रकार किया गया, प्रथम पक्षकी ओरसे पांच प्रतिनिधियोंके नाम इस प्रकार प्रस्तुत हुए १. श्री पं० माणिकचंदजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद, २. श्री पण्डित मक्खनलालजी शास्त्री, मुरैना, ३. पंडित जीवंधरजी न्यायतीर्थ, इन्दौर, ४. श्री पंडित वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना, ५. पंडित पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर । २. द्वितीय पक्षकी ओरसे सिर्फ तीन नाम प्रस्तुत किये गये १. श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धांतशास्त्री और श्री नेमिचन्दजी पाटनी, आगरा और ३. श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी चर्चाके विषय पं० मक्खनलालजी द्वारा प्रस्तुत - ―― १. द्रव्य कर्मोंके उदय से संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ? २. जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं ? ३. जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? ४. व्यवहार धर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं ? ५. द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियत क्रमसे ही होती हैं या अनियत क्रमसे भी । ६. उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त कारण सहायक होता है या नहीं ? इन चर्चाओंके समाधानके लिए तीन-तीन दौर चले थे । सर्वप्रथम पूर्वपक्ष शंका रखता था, उसका समाधान पं० फूलचन्द्रजीको अपने सहयोगियोंके सहयोगसे दूसरे दिनके १ बजे तक सौंप देना होता था । शंका १ -- द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ? समाधान --- समयप्राभृत गाथा ८३ में कहा गया है कि कर्मके उदय और रागादि भावमें निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध तो हैं, किन्तु कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है । विकार कर्मके उदयमें होता है, यह बात सत्य है, किन्तु कर्मका उदय विकार नहीं कराता है। प्रवचनसारकी गाथा नं० ७७ और १६९ में भी यही कहा हैकि कर्मके योग्य कार्मण वर्गणा अपने आप जीवकी परिणतिको निमित करके कर्मभावको प्राप्त करते हैं; जीव कमको परिणमाता नहीं है। समयसार गाथा ०५ का और उसकी टीकाका प्रमाण प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया गया है कि कर्म जीवको विकार कराता है, यह मात्र उपचार कथन है। इसके पश्चात् पूर्व पक्षने पुनः प्रतिशंका उपस्थित करते हुए पंचास्तिकाय गाथा ५५-५८ आदिके अनेक प्रमाण देकर यह बतलानेका प्रयत्न किया कि कर्ममें भी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि यह केवलज्ञानादिको रोके हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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