Book Title: Jainmatanusar Abhav Pramey Mimansa Author(s): Nirmalashreeji Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ 118 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय -0--0--0--0-0--0-0--0--0-0 में समवाय है, उसका समवाय कभी भी पुद्गल में नहीं हो सकता, अतः यह अत्यन्ताभाव कहलाता है. यदि अत्यन्ताभाव का लोप कर दिया जाय तो किसी भी द्रव्य का कोई असाधारण स्वरूप नहीं रह जायगा. सब द्रव्य सर्वात्मक हो जायेंगे.. अत्यन्ताभाव के कारण ही एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो पाता. द्रव्य चाहे सजातीय हो या विजातीय, उसका अपना प्रतिनियत अखण्ड स्वरूप होता है. एक द्रव्य दूसरे में कभी भी ऐसा विलीन नहीं होता जिससे कि उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाय. इस लेख में हमने अभाव प्रमेय को लेकर विचार किया. उसके ग्राहक-प्रमाण के सम्बन्ध में विस्तृत विचार यहाँ इष्ट नहीं है. अभावरूप प्रमेय के ग्राहक-प्रमाण के बारे में अनेक प्रकार के मत दार्शनिकों में पाये जाते हैं. मीमांसक कुमारिल के अनुसार अभाव प्रमेय अनुपलब्धिप्रमाण-ग्राह्य है. बौद्ध, अपने कल्पित अभावका ग्यारह प्रकार की अनुपलब्धियों द्वारा अनुमेय मानते हैं. वेदान्तियों के मत में घटाभाव पटाभाव आदि अभावों के साथ इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध संभव नहीं होने से प्रत्यक्ष के द्वारा अभाव का ग्रहण नहीं हो सकता है, अतः कुमारिल का अनुसरण करते हुए वे अभाव के ग्रहण के लिये अभाव या अनुपलब्धि नामक एक पृथक् मानते हैं. किन्तु नैयायिक अभाव ग्रहण का प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा ही मानते हैं. और सांख्य ने भी उसको प्रत्यक्ष के अन्तर्गत ही माना है. परन्तु उसके उपपादन का मार्ग भिन्न है. जैन मतानुसार अभाव को प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा ग्राह्य माना गया है. जैसा कि बादी देवसूरि ने स्याद्वाद-रत्नाकर में कहा है —'अभाव-प्रमाणं तु प्रत्यक्षादावेवान्तर्भवतीति'. स्थानाभाव के कारण इन मान्यताओं पर ऊहापोह करना प्रस्तुत प्रसंग में सम्भव नहीं है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5