Book Title: Jaindharm aur uska Bharatiya Sabhyata aur Sanskruti ko Yogadan Author(s): Chamanlal Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 6
________________ द्रविड़ भाषाओं के साहित्य को समृद्ध करने में भी जैन आचार्यों का प्रशंसनीय योगदान रहा है। तमिल भाषा के 18 नीति प्रन्थों कुरल और नालडिवार, पाँच महाकाव्यों में शिलप्पदिकारम, वलयापति और चिन्तामणि तथा पांचों लघु काव्य प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ हैं। तेलुगू के नन्नयमट्ट का महाभारत भी अच्छा ग्रन्थ है। कर्नाटक साहित्य पर तो जैनधर्म का सर्वधिक प्रभाव रहा है। आदि पुराण और भारत के लेखक महाकवि पम्प, नन्ननागवर्मा, कोशीराज, राजदित्य, श्रीधराचार्य कीर्तिवर्मा, जगछल, मंगरस, सिंहकीर्ति आदि जैन साहित्यकार प्राचीन काल से मध्यकाल तक जैन साहित्य का सृजन करते रहे / 12 वीं सदी में आचार्य हेमचन्द्र ने सस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, राजस्थानी, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अनेक ग्रंथ रचकर अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। बाद में मध्ययुग में ही राजशेखर का प्रबन्ध कोश, विमलस्रि का पद्मचरित्र, विक्रम का नेमदूत, मालवसुन्दरि कथा, यशोधरा चरित्र आदि प्रमुख कृतियां रची गई। उसके उपरान्त 1581 में हिन्दी के विद्वानों में गौरवदास, रायमल, नैनसुख, समयसुन्दर, कृष्णदास, बनारसीदास, भगवतीदास, कविरत्न शेखर, भूधरदास, दौलतराम, महोपाध्याय रूपचन्द्र, पं० टोडरमल आदि सैकड़ों कवि हुए। इन विद्वानों और कवियों के ग्रन्थों को अध्ययन कर प्रकाश में लाने का उत्तरदायित्व आधुनिक विद्वानों और शोधकर्ताओं का है। 6. कलाशास्त्रीय प्रभाव-कला के क्षेत्र में भी जैनधर्म ने पर्याप्त योग दिया। प्राचीनकाल में ईसा से छठी शती पूर्व के उपरान्त प्राप्त मूतियों और अन्य ऐतिहासिक प्रमाण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। उदयगिरि और खण्डगिरि की जैन गुफायें खुजराओं, शत्रुज्जय, गिरनार के मन्दिर, देउलवाड़ा के जिनालय, हम्मारपुर कुम्भरिया, श्री राणक्पुर तीर्थ का 1444 स्तम्भों वाला विशालकाय जिनालय, लोदवा मन्दिर इसमें विशेष उल्लेखनीय हैं। शत्रुज्जय पर्वत पर : विशाल दुर्ग हैं जिनमें छोटे बड़े 3 सहस्र जिनालय और 25 सहस्र से ऊपर प्रतिमायें हैं / गिरनार पर्वत के जैन तीर्थ के सैकड़ों मन्दिरों में सम्राट् कुमारपाल, महामन्त्री वस्तुपाल-तेजपाल और संग्रामसौनी की ट'क शिल्प की दृष्टि से विशेष वर्णनीय हैं / आबू पर्वत पर देउलवाड़ा में विमलदंड नायक का आदिनाथ जिनालय, लौदना (जैसलमेर) का पार्श्वनाथ मन्दिर, ग्वालियर की प्रतिमायें, उड़ीसा की हाथी गुफायें, दक्षिण भारत की गोमटेश्वर की बाहुवलि की 57 फुट ऊँची प्रतिमा संसार में अद्भुत और आश्चर्यजनक हैं / इनके अतिरिक्त मथुरा, बिहार में चौसा में प्राप्त मूर्तियां, ललितपुर देवगढ़ की मूर्तियां, बिहार में पार्श्वनाथ की मूर्तियां, दक्षिण भारत की अनेक मूर्तियां, जैनधर्मशालायें, कीर्तिस्तम्भ मानस्तम्भ स्तूप, पावापुरी, राजगिरि, सोनागिरि की पहाड़ियों में बने जैन मन्दिर और महावीर जी, पद्मपुरी (जयपुर) के जैन मन्दिर भी कला की अद्भुत कृतियां हैं। वास्तव में पूर्ण जैन मन्दिर में कला की दृष्टि से अनेक स्थान दर्शनीय होते हैं / उन पर विभिन्न प्रकार की कलाकारी ध्यान से देखने योग्य होती है / जैसे-सीढ़िया, शृगार चौकी, परिकोष्ठ, सिंहद्वार, प्रतोली, निज मन्दिर द्वार, मूलगम्भारा और उसकी वेदिका। कला के काम में अधिकांश जैनधर्म कथाओं का भाव अंकित किया होता है। स्थापत्य की दृष्टि से जैन मन्दिर सर्वांगपूर्ण होते हैं। इनका अध्ययन करना जहाँ आनन्दमय है वहाँ भारतीय संस्कृति को भी अपार लाभकारी होगा। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जैनधर्म और महावीर संस्कृति का, भारतीय इतिहास, उसकी सभ्यता और संस्कृति को अपूर्व बोगदान है / भारतीय जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस पर जैन संस्कृति का प्रभाव दृष्टिगत न होता हो। भगवान् महावीर का संदश भगवान् महावीर के सन्देश और उनके लौकिक जीवन के संबंध में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने का भी हमारे लिये ही नहीं समस्त संसार के लिये विशेष महत्त्व है। 'अहिंसा परमो धर्मः' का सन्देश उनकी अनुभूति और तपश्चर्या का परिणाम था। महावीर के जीवन से मालूम होता है कि कठिन तपस्या करने के बाद भी वे शुष्क तापसी अथवा प्राणियों के हित-अहित से उदासीन नहीं हो गये थे। दूसरों के प्रति उनकी आत्मा स्नेहा और सहृदय | रही। इसी सहानुभूतिपूर्ण स्वभाव के कारण जीवन के सुख-दुख के बारे में उन्होंने गहराई से सोचा है और इस विषय में सोचते हुए ही वे वनस्पति के जीवों तक पहुंचे हैं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि और बहुमूल्य अनुभव, जिसके आधार पर वे अहिंसा के आदर्श पर पहुंचे, साधारण जिजासा का ही विषय न रहकर वैज्ञानिक अध्ययन तथा अनुसंधान का विषय होना चाहिए। राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद वैशाली-अभिनन्दन-ग्रन्थ पृ० 106 से साभार आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ 122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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