Book Title: Jainagam me Karmbandh Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 6
________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १२१ अतत्त्वका तत्त्वके रूप में श्रद्धान करना । तत्त्वश्रद्धानके न होने रूप मिथ्यादर्शन एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें पाया जाता है। परन्तु अतत्वका तत्त्वके रूपमें श्रद्धान करने रूप मिथ्यादर्शन केवल संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जाता है, क्योंकि अतत्त्वका तत्त्वके रूप में श्रद्धान नोकर्भभूत हृदयके अवलम्बनसे होता है जो हृदय जैन सिद्धान्तके अनुसार संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही रहता है। मिथ्यादर्शनका जो मिथ्यापन है वह उस दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें अनुकल निमित्तोंके आधारपर होनेके कारण है। इसीप्रकार मिथ्याज्ञानका अर्थ है अतत्त्वज्ञान । वह भी दो प्रकारका है-एक तो तत्त्वज्ञानका न होना और दूसरा अतत्त्वका तत्त्वके रूपमें ज्ञान करना । तत्त्वका ज्ञान न होने रूप मिथ्याज्ञान भी एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञोपंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें पाया जाता है । परन्तु अतत्त्वका तत्त्वके रूप में ज्ञान करने रूप मिथ्यादर्शन पूर्वक होनेवाला मिथ्याज्ञान केवल संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जाता है, क्योंकि अतत्त्वका तत्त्वके रूपमें श्रद्धान नोकर्मभूत मस्तिष्कके अवलम्बनसे होता है और वह मस्तिष्क जैनसिद्धान्तके अनुसार संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही रहता है। यहाँ भी मिथ्याज्ञानका जो मिथ्यापन है वह उस मिथ्याज्ञानके मिथ्यादर्शनपूर्वक होनेके कारण है। मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान दोनों जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन है तथा दोनों दर्शनमोहनीय कर्मके भेद मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयके आधारपर निर्मित मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवमें ही एक साथ पाये जाते हैं। मिथ्याचारित्रके विषयमें यह ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान पूर्वक जोवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो क्रिया-व्यापार उस मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवी जीवका होता है उसे ही मिथ्याचारित्र कहा जाता है और उसका उत्पादन चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी कषायके उदयके प्रभावमें अनुकल निमित्तोंके आधारपर होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप राग-द्वेषके अनुसार होता है। यह मिथ्याचारित्र एकेन्द्रिय जीवमें नोकर्मभत काय (शरीर) के अवलम्बनसे, द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञीपंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें नोकर्मभूत काय और बोलनेके आधारभत वचनके अवलम्बनसे एवं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें नोकर्मभूत काय, वचन और मन तीनोंके अवलम्बनसे होता है । उपर्युक्त विवेचनसे यद्यपि यह स्पष्ट होता है कि दर्शनमोहनीयकमके भेद मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें जीव मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती है और उस जीवके हो अनुकूल निमित्तोंके आधारपर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र होते हैं । परन्तु वे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र उस जीवमें मिथ्यात्वकर्मके उदयके सद्भावमें नियमसे नहीं होते, क्योंकि मिथ्यात्वक मके उदयमें मिथ्याष्टिगुणस्थानवर्ती कोई-कोई संज्ञीपंचेन्द्रिय भव्य और अभव्य जीव यदि निमित्त मिलनेपर हृदयके अवलम्बनसे व्यवहारसम्यग्दर्शन और मस्तिष्कके अवलम्बनसे व्यवहारके सम्यग्ज्ञानको प्राप्त होते हैं, तो उनका क्रिया-व्यापार मिथ्याचारित्र रूप न होकर या तो अविरतिरूप होता है या उनके देशविरति हो जानेपर शेष देश अविरतिरूप होता है अथवा उनके महाविरति हो जानेपर २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप होता है। फलतः मेरी समझके अनुसार मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्याष्टिगुणस्थानवर्ती संज्ञीपंचेन्द्रिय उन भव्य और अभव्य जीवोंको जो कर्मबन्ध होता है वह या तो अविरतिरूप क्रिया-व्यापारके आधारपर होता है या उनके देशविरति हो जानेपर शेष एकदेश अविरतिरूप क्रिया-व्यापारके आधारपर होता है या उनके महाविति हो जानेपर २८ मूलगुणों में प्रवृत्ति रूप क्रिया-व्यापारके आधारपर होता है । अतएव उस क्रिया-व्यापारके मिथ्याचारित्ररूप न होनेके कारण उनको होनेवाला कर्मबन्ध मिथ्याचारित्रके आधारपर नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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