Book Title: Jainagam aur Nari Author(s): Kalavati Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ कलावती जैन : जैनागम और नारी : ६०१ भी साधना की उसी ज्योति का दर्शन कराया. उसकी साधना का द्वार सब के लिये खुला था. उसने स्त्री का भी स्वागत किया और पुरुष का भी. तथागत बुद्ध भी भगवान् महावीर के समकालीन महापुरुष थे. जाति-भेद की दीवार को तोड़ने एवं हिंसक यज्ञों का विरोध करने में भगवान् बुद्ध ने साहस का परिचय दिया. उनके मन में भी नारी के प्रति सम्मान और आदर के भाव थे. उस युग की गणिकाओं के जीवन को बदलने के लिये उन्होंने भी महत्वपूर्ण काम किया. परन्तु उनके जीवन में यह एक महान् कमजोरी थी कि वे नारी को अपने भिक्षुसंघ में स्थान नहीं दे सके. जब कभी उनके प्रमुख शिष्य आनन्द ने उनके सामने नारी को श्रमणदीक्षा देने का प्रश्न रखा, तब उन्होंने उसे टालने में ही अपना हित समझा और वे अन्त तक उसे टालते ही रहे. अन्त में आनन्द एक बहिन को—जो भगवान् बुद्ध की परम शिष्या एवं अनन्य भक्ता थीले आया और भगवान् बुद्ध से निवेदन किया कि यह बहिन आपके श्रमण-संघ में प्रविष्ठ होने के लिये सब तरह योग्य है और आपके उपदेश को जीवन में साकार रूप देने के लिये सर्वथा उपयुक्त है, ऐसा मैंने देख लिया है. अत: इसे आप श्रमण-साधना का, भिक्षुणी बनने का उपदेश दें. भगवान् बुद्ध इसके लिये तैयार नहीं थे. परन्तु वे आनन्द के आग्रह को टाल न सके. उन्होंने आनन्द से इतना ही कहा : 'हे आनन्द ! मैं यह कार्य केवल तुम्हारे प्रेम एवं आग्रह को रखने के लिये कर रहा हूँ और तुम्हारे स्नेह के कारण ही यह खतरा उठा रहा हूँ. मैं इसे भिक्षुणी बना रहा हूँ.' उन्होंने आनन्द के आग्रह को रखने के लिये भिक्षुणी-संघ की स्थापना की. परन्तु उनके साथ यह स्पष्ट कर दिया कि-'हे आनन्द ! मेरा यह शासन एक हजार वर्ष चलता, वह अब पांच-सौ वर्ष ही चलेगा.' इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तथागत बुद्ध के मन में भय या डर था. उन्हें व्यावहारिक भूमिका छू गई थी. परन्तु भगवान् महावीर व्यावहारिक भूमिका से ऊपर उठ चुके थे. उनके मन में, उनके जीवन के किसी भी कोने में भय एवं डर को कोई स्थान नहीं था. इसलिए साधना के क्षेत्र में उन्होंने स्त्री और पुरुष में तत्त्वतः कोई भेद नहीं रखा. चतुर्विधसंघ में श्रमणियों-साध्वियों को श्रमण-साधु के बराबर स्थान दिया और श्राविकाओं को श्रावक के समान. उन्होंने साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका चारों को तीर्थ कहा और चारों को मोक्ष-मार्ग का पथिक बताया. आगमसाहित्य में नारी का स्थान-भगवान् महावीर की अभेद विचारधारा का ही यह प्रतिफल है कि उनके श्रमणसंघ में श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या अधिक रही है और उपासक वर्ग में भी श्रमणोपासकों से श्रमणोपासिकाएँ संख्या में द्विगुणाधिक थी. श्रमण १४००० थे, तो श्रमणियाँ ३६००० थीं, और आज भी साधुओं से साध्वियों की और धावकों से श्राविकाओं की संख्या अधिक है. यह संख्या इस बात का ज्वलन्त उदाहरण है कि भगवान् महावीर के शासन में नारी का जीवन विकसित एवं प्रगतिशील रहा है. आगम-साहित्य का अनुशीलन-परिशीलन करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अगाम-साहित्य में नारी के ज्योतिर्मय जीवन की गौरवगाथा स्वर्णाक्षरों में अंकित है. भगवतीसूत्र में कौशाम्बी के शतानीक राजा की बहिन जयन्ती के चिन्तनशील उर्वर मस्तिष्क एवं तर्कशक्ति का परिचय मिलता है. वह निर्भय एवं निर्द्वन्द्व भाव से भगवान् महावीर से प्रश्न पूछती है, और भगवान् महावीर उसके तर्कों का समाधान करते हैं. इस विचार-चर्चा में उसकी सूक्ष्म तर्कशक्ति का परिचय मिलता है और इससे यह परिज्ञात होता है कि इसके पीछे उसका विशाल अध्ययन, गहन चिन्तन एवं सतत स्वाध्याय साधना का बल था. दशवैकालिक-सूत्र में राजमती और रथनेमि का संवाद मिलता है. राजमती जब भगवान नेमिनाथ के दर्शनार्थ गिरनार पर्वत पर जा रही थी, तब मार्ग में वर्षा से भीगे हुए वस्त्रों को सुखाने के लिये वह एक गुफा में प्रविष्ट हुई वहाँ भगवान् नेमिनाथ के लघु भ्राता रहनेमि ध्यान साधना में संलग्न थे राजमती के सौन्दर्य को देखकर उनका मन विचलित हो उठा और वह साधना एवं संयम के बांध को तोड़ कर भागने लगा. रहनेमि ने राजमती के सामने भोग भोगने का प्रस्ताव रखा. उस समय संयमनिष्ठा राजमती ने पथ-भ्रष्ट एवं वासना की ओर जाते हुए रहनेमि को साधना-पथ पर लगाने का प्रयत्न OnaN Velibrary.orgPage Navigation
1 2 3