Book Title: Jain yoga Parampara me Klesh mimansa Author(s): Aruna Anand Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 3
________________ क्लेशों से निवृत्ति ___ कोई भी व्यक्ति दुःखी रहना नहीं चाहता। प्रत्येक व्यक्ति सुख की कामना करता है। सुख प्राप्त करने के लिए दुःख की निवृत्ति अत्यन्तावश्यक है। भौतिक सुख साधनों से प्राप्त सुख क्षणिक होता है अतः उसे सुख नहीं कहा जा सकता। क्लेशों की निवृत्ति तो शास्त्रोक्त साधनों द्वारा ही हो सकती है। इसके लिए प्रथम उदार अवस्था प्राप्त क्लेशों को क्षीण करने के लिए तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि क्रियायोग ही एकमात्र साधन है। इसी सन्दर्भ में यशोविजय मोहप्रधान घाति कर्मों का नाश क्षीणमोह सम्बन्धी यथाख्यात चरित्र से बताते हैं।' जैनागमों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और मोहनीय इन चारों को घाती कर्म कहा गया है, क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य) का घात होता है। इन चारों घाती कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है क्योंकि जब तक मोहनीय कर्म बलवान और तीव्र रहता है, तब तक अन्य सभी कर्मों का बन्धन बलवान और तीन रहता है तथा मोहनीय कर्म के नाश के साथ ही अन्य कर्मों का भी नाश हो जाता है / अत: आत्मा के विकास की भूमिका में प्रमुख बाधक मोहनीय कर्म है। आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्था को जैनदर्शन में 14 भागों में विभक्त किया गया है, जो 14 गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं-मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, सम्यक् मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यक् दृष्टि, देशविरत-विरताविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोग केवली और अयोग केवली। ये 14 गुणस्थान जैनचारित्र की१४ सीढ़ियां हैं। इनमें १२वां गुणस्थान क्षीणमोह है। इस गुणस्थान में सम्पूर्ण मोह का क्षय हो जाता है, जिससे साधक का कभी पतन नहीं होता। इसका सम्बन्ध यथाख्यात चारित्र से है जो चारित्र का पांचवां भेद है। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आमा का स्वभाव है, उस अवस्था रूप, जो चारित्र होता है वह यथाख्यात चारित्र कहा जाता है, इसका ही दूसरा नाम यथाख्यात है। यथाख्यात से सम्पूर्ण मोह का क्षय हो जाता है। आ० यशोविजयजी ने अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश रूप पंचक्लेशों को मोहनीय कर्म का औदयिक भाव माना है।' आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न करने वाले कर्म मोहनीय कर्म कहलाते हैं। मोहनीय कर्म के प्रभाव से आत्मा के वीतराग भाव-शुद्ध स्वरूप---विकृत हो जाते हैं, जिससे आत्मा रागद्वेष आदि विकारों से ग्रस्त होता है। इस मोहनीय कर्म के उदय से जीव को तत्त्व-अतत्त्व का भेद ज्ञान नहीं हो पाता, वह संसार के विकारों में उलझ जाता है। मोहनीय कर्म का पूर्णतः क्षय हो जाने पर, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय तीनों कर्मों का क्षय एकसाथ हो जाता है। अत: मोहनीय कर्म का क्षय करना चाहिए। मोहनीय कर्म के क्षय से ही कैवल्य की प्राप्ति होती है। जबकि योग की परिभाषा में पंच क्लेशों के नाश से ही कैवल्य प्राप्त होता है। सही दृष्टि से देखा जाय तो जैन अनीश्वरवाद वस्तुत: दार्शनिक अनीश्वरवाद है, क्योंकि उसमें सृष्टिकर्ता ईश्वर की सत्ता का गहन विश्लेषण किया गया है और उन दार्शनिकों के तर्कों का व्यवस्थित रूप से खण्डन किया गया है जिन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के प्रयत्न किये / जैन धर्म में ईश्वर शब्द का प्रयोग जीव के उच्च स्तरीय अस्तित्व के अर्थ में किया गया है। मान्यता यह है कि ईश्वरीय अस्तित्व मानवीय अस्तित्व से थोड़ा ही ऊंचा है। क्योंकि यह भी जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं है। सर्वार्थ सिद्धि नामक सर्वोच्च स्वर्ग में सर्वाधिक अस्तित्व का काल 32 और 33 सागरोपमों के बीच का है / ईश्वरीय जीवों ने अपने जिन अच्छे कर्मों से सामान्य मानवों से अधिक ऊंचा स्तर प्राप्त किया था, उनके समाप्त होते ही उन्हें पृथ्वी पर लौट आना पड़ता है। परन्तु यदि इस काल में वे अतिरिक्त ज्ञान का संग्रह करते हैं, तो उन्हें जन्म के इस कष्टमय चक्र से मुक्ति मिल सकती है। -प्रो० एस० गोपालन : जैन दर्शन की रूपरेखा के प्रथम भाग भूमिका में वणित 'क्या जैन धर्म नास्तिक है?'प०३५ से साभार 1. क्षीणमोहसम्बन्धियथाख्यातचारित्रया इत्यर्थः (य०३० सू०२/१०) 2. सर्वेऽपि क्लेशा मोहप्रकृत्युदयजभाव एव (य० वृ० सू०२/६)। 3. अत एव क्लेशक्षये कैवल्य सिद्धि : मोहक्षयस्य तद्धे तुत्वात् इति पारमर्षरहस्यम् (य० व० सू० 2.6) जैन धर्म एवं आचार 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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