Book Title: Jain vangamaya ke Yorapiya Europiya Samshodhak
Author(s): Gopalnarayan Bahura
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 2
________________ ७४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय कलिन व कोलबुक द्वारा जैन-मंदिरों के शिलालेखों पर भी अध्ययनात्मक विवरण प्रकाशित हुए हैं, परन्तु सबसे पहली पुस्तक जिसके टाइटल पर "जैन" शब्द अंकित हुआ है वह फ्रेंकलिन लिखित “जैन और बौद्धवादों का संशोधन' (Researches on the Tenets of the Jeynes & Boodhists) है जो १८२७ ई० में सामने आई. विलसन ने अपने सविवरण सूची-पत्र में बहुत-सी जैन-पाण्डुलिपियों का विवरण दिया है, जिनमें से कुछ उसकी निजी थीं और कुछ कलकत्ता संस्कृत कालेज की थीं. १८२८ ई० में प्रकाशित मैकेन्जी संग्रह के कैटलाग में उसने उन ४४ हस्तलिखित ग्रन्थों का भी विवरण दिया है, जो लन्दन में ईस्ट इण्डिया कम्पनी में पहुँच चुके थे. कोलबुक ने आचार्य हेमचन्द्र कृत 'अभिधानचिन्तामणि' और 'कल्पसूत्रादि' विषयक निबन्ध तो लिखे परन्तु इनके सुसम्पादित संस्करण उस समय न निकल सके और बाद में भी बीस वर्ष तक कोई मूलपाठ का संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ. अन्त में, सैटपीटर्सबर्ग से 'अभिधानचिन्तामणि' का भूतलिंग (Bohtlingk) और रीउ (Ricu) कृत जर्मन अनुवाद १८४७ ई० में प्रकाशित हुआ तथा कल्पसूत्र एवं नवतत्त्व प्रकरण का अंग्रेजी अनुवाद स्टीवेंसन द्वारा १८४८ ई० में प्रकाश में आया. प्राकृत आगम का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाला स्टीवेन्सन ही प्रथम विद्वान् था. बाद में वेबर (Weber) (१८२५-१६०१ ई० सन्) ने धनेश्वर सूरि कृत 'शत्रुञ्जय-माहात्म्य' का सम्पादन करके विस्तृत भूमिका सहित लिपज़िग (Leipzig) से सन् १८५८ ई० में प्रकाशित कराया. इस विद्वान् का जैन-शास्त्रों के अध्ययन के परिणामस्वरूप यह प्रथम प्रयास था...परन्तु आगे चलकर 'भगवतीसूत्र' पर जो कार्य वेबर ने किया वह चिरस्मरणीय रहेगा. यह ग्रन्थ बलिन की विसेन्चाफेन (Wissenchaften) अकादमी से १८६६-६७ ई० में निकला था. अब तो यह प्रायः अप्राप्य हो गया है परन्तु जैन साहित्य के भाषा शास्त्रीय अध्ययन के क्षेत्र में एक युग-प्रवर्तक ग्रन्थ समझा जाता है. वेबर की 'जैनों का धार्मिक साहित्य' (Sacred Literature of the Jainas) का अंग्रेजी अनुवाद स्मिथ ने प्रकाशित किया था. विण्डिश (Windisch) ने अपने इण्डो-आर्यन रिसर्च के विश्वकोश (Encyclopedia of Indo-Aryan Research) में इसका सविस्तर विवरण दिया है. तदुपरान्त वेबर ने बलिन की रायल लाइब्रेरी में उपलब्ध जैन पाण्डुलिपियों का अध्ययन करके जिन मूलभूत सिद्धान्तों की स्थापना की है। वे जैन साहित्य और इतिहास के विवेचन में कभी भुलाए नहीं जा सकते. उक्त पुस्तकालय में बाद में १६४४ ई० तक जो जैन ग्रन्थ खरीदे गए उनका सूचीपत्र वाल्टर शुब्रिङ् (Walther Schubring) ने तैयार किया है, जो लिपज़िग से प्रकाशित हुआ है. इसमें ११२७ ग्रन्थों का विवरण है. बलिन में जो हस्तलिखित जैन ग्रन्थ पहुँचे हैं और जिनका विवरण वेबर ने अपने कॅटलाग में किया है उनका मुख्य माध्यम ब्युलर को मानना चाहिए. उस विद्वान् को बम्बई के शिक्षा-विभाग ने कुछ अन्य विद्वानों के साथ तत्तत् क्षेत्रों में दौरा करके निजी संग्रहों का विवरण तैयार करने तथा उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थों को खरीदने के लिये तैनात किया था. ऐसे ग्रन्थों के विषय में भण्डारकर, ब्युलर (१८३७-६८ ई०), कोलहान, पीटर्सन और अन्य विद्वानों की रिपोर्ट समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं तथा निरीक्षित-परीक्षित ग्रन्थों के विवरण एवं उनके विषय में आवश्यक जानकारी भी उन रिपोर्टों में दी गई है. इस प्रकार खरीदे हुए ग्रन्थ 'डेकन कालेज, पूना' में एकत्र किए गए थे, जो अब भाण्डारकर शोध संस्थान में सुरक्षित हैं. ब्यूह्लर ने सरकारी शिक्षा विभाग से यह अनुमति प्राप्त कर ली थी कि जिन ग्रन्थों की एकाधिक प्रतियाँ मिलें उनको वह विदेशी पुस्तकालयों के लिए भी खरीद सकेगा. और, यही कारण है कि बलिन तक अनेक महत्त्वपूर्ण जैन-ग्रन्थ पहुँच सके तथा वहाँ के अध्यवसायी विद्वानों द्वारा सुसम्पादित होकर उनके बह-प्रशंसित अद्वितीय संस्करण निकले, जो उनके भाषाशास्त्रीय अध्ययन के प्रति संसार के अग्रणी विद्वानों को आकर्षित करने में समर्थ हुए. यह भी मान लेने में संकोच नहीं करना चाहिए कि इस प्रकार के अध्ययनार्थ एतद्देशीय विद्वानों को मार्गदर्शन करने का श्रेय भी इन्हीं पाश्चात्य विद्वानों को है. १. Indische Studien Vol. XVI. &XVII, 1888-92.

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