Book Title: Jain tattva Mimansa Ek Pramanik Kruti Author(s): Manikchandra Bhisikar Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf View full book textPage 1
________________ पंचम खण्ड : ६२९ जैनतत्त्वमीमांसा : एक प्रामाणिक कृति श्री माणिकचन्द्र जयवंतसा भिसीकर, बाहुबली भारतीय संस्कृतिकी मूल भित्तिके रूपमें जैन संस्कृति जिन मौलिक तत्त्वोंपर सुस्थित है, वे तत्त्व स्वतन्त्र एवं वैशिष्ट्यपूर्ण हैं, इसमें सन्देह नहीं है। प्राचीन कालमें तथा वर्तमानमें भी जो दार्शनिक विचारवंत हुए हैं; वे आचार्य हों या दृष्टि सम्पन्न श्रावक हों, उन्होंने जैन संस्कृति एवं उसके तत्त्वज्ञानपर मौलिक प्रकाश डाला है। उसकी जो-जो विशेषताएँ आगम, तर्क तथा अनभतिके बलपर उन्होंने स्वयं अवगत की, उन्हें तत्त्वजिज्ञासू जनोंके सामने दिल खोलकर रखी हैं। उनका इस विषयका प्रामाणिक सूक्ष्म परिशीलन तथा सुव्यवस्थित विवेचन नई पीढ़ीके अभ्यासियोंके लिए बहत उपर्युक्त एवं मननीय सिद्ध हआ है। ज्ञान तथा अनुभववृद्ध श्रद्धेय पण्डितवर फुलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी "जैनतत्त्वमीमांसा" यह एक ऐसी ही मौलिक एवं अनुपम कृति है, जो पण्डितप्रवर ये टोडरमलजीके सर्वतोभद्र "मोक्षमार्गप्रकाशक" के अनन्तर न केवल तत्त्वजिज्ञासुओंके लिए, अपितु जानकर विद्वानोंके लिए भी समीचीन दृष्टि प्रदान करनेवाली अतीव उपयुक्त तथा पुनः-पुन अभ्यासकी वस्तु बनी प्रतीत होती है । इस ग्रन्थमें आगम तथा अध्यात्मको सुन्दर समन्वय करते हुए जैन दर्शन सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताओंका सूक्ष्म विवेचन हुआ है, जिससे कई गुत्थियाँ सहज सुलझती हैं, अनेक भ्रान्त धारणाएँ जड़ से दूर होती हैं, और जैन तत्त्वका वास्तविक मर्म सुस्पष्ट होता है। .. प्रत्येक विषयका विवेचन करते समय जगह-जगहपर पूर्वाचार्योंके तलस्पर्शी सन्तुलित चिन्तनका प्रामाणिक आधार दिये जानेके कारण विषय सुस्पष्ट तो होता ही है, साथ-साथ उसकी महत्ता एवं विवेचनकी प्रामाणिकता भी दृग्गोचर होती है । सन्देहका पूरा निराकरण हो जाता है । इस एक ग्रन्थके अभ्यासपूर्ण मनन एवं चिन्तनसे जैन दर्शनकी पूरी मौलिक जानकारी पाठकोंको सहजमें होती है, और पूर्वाचार्योंके अनेक विस्तृत दार्शनिक ग्रन्थोंका सारभूत निचोड़ भी सामने आता है, जिससे मन अत्यधिक प्रसन्नताका अनुभव करता है। ___ मान्यवर पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री जैन सिद्धान्तके उच्चकोटिके दृष्टि सम्पन्न विद्वान् है। जैनाचार्योंके प्राचीनतम षट्खण्डागमका वर्षों तक उन्होंने अध्ययन-मनन करके उसका सुगम हिन्दी में अनुवाद भी किया है। कसायपाहुड (जयधवला) तथा मूलाचारका भी अनुवाद कार्य उनके द्वारा सम्पन्न हो रहा है। ऐसे अनुभवी विद्वान्की पैनी लेखनीसे यह कृती बनी है, इसीसे उसकी महत्ता एवं प्रामाणिकता ख्यालमें आती है। हमारे सामने पण्डितजीके इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका दूसरा संस्करण है, जिसे उन्होंने ही अशोक प्रकाशन मंदिर, रवीन्द्रपुरी, वाराणसीसे वीरनिर्वाण संवत् २५०४ में प्रकाशित किया है। इसके "आत्मनिवेदन" में वे लिखते हैं "इसमें प्रथम संस्करणकी अपेक्षा विषयको विशदताको ध्यानमें रखकर पर्याप्त परिवर्धन किया गया है । साथ ही प्रथम संस्करणका बहुत कुछ अंश भी गर्भित कर लिया है। इसलिए इसे द्वितीय संस्करण या विषयके विस्तृत विवेचनकी दृष्टिसे दूसरा भाग भी कहा जा सकता है । ग्रन्थके कुल बारह प्रकरण है, जिनके नाम इस प्रकार है। १. विषय प्रवेश २. वस्तुस्वभावमीमांसा ३. बाह्यकारण मीमांसा ४. निश्चय-उपादान मीमांसा ५. उभय निमित्त मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4