Book Title: Jain evam Bauddh Dharm me Swahit evam Lokhit ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ जैन एवं बौद्ध धर्म में स्वहित और लोकहित का प्रश्न स्वार्थ और परार्थ की समस्या बहुत पुरानी है । नैतिक चिन्तन स्वार्थवाद और परार्थवाद के अर्थ पर भी विचार कर लेना होगा । के प्रारम्भ से ही स्वहित और लोकहित का प्रश्न महत्त्वपूर्ण रहा है। एक स्वार्थवाद 'आत्मरक्षण' है और परार्थवाद 'आत्मत्याग' है । ओर चाणक्य कहते हैं - 'स्त्री, धन आदि से बढ़कर अपनी रक्षा का प्रयत्न मैकेन्जी लिखते हैं- 'जब हम केवल अपने ही व्यक्तिगत साध्य की करना चाहिए।' विदुर ने भी कहा है - 'जो स्वार्थ को छोड़कर परार्थ सिद्धि चाहते हैं तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है; परार्थवाद है दूसरे के करता है, जो मित्रों अर्थात् दूसरे लोगों के लिए व्यर्थ ही श्रम करता है साध्य की सिद्धि का प्रयास करना ।' दूसरे शब्दों में स्वार्थवाद को वह मूर्ख ही है ।' किन्तु दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, स्वहित के स्वहितवादी दृष्टिकोण और परार्थवाद को लोकहितवादी दृष्टिकोण भी लिए तो सभी जीते हैं जो लोक हित के लिए, परार्थ के लिए जीता है, कह सकते हैं । वस्तुत: उसका जीवन ही सफल है । जिस जीवन में परोपकार वृत्ति नहीं हो उससे तो मरण ही अच्छा है। जैन दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या पाश्चात्य विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने तो स्वार्थ और परार्थ के यदि स्वार्थ और परार्थ की उपरोक्त परिभाषा स्वीकार की जाए इस प्रश्न को नैतिकता की वास्तविक समस्या कहा है । यहाँ तक कि तो जैन दर्शन को न स्वार्थवादी कहा जा सकता है, न परार्थवादी ही। पाश्चात्य आचारशास्त्रीय विचारणा में तो स्वार्थ की समस्या को लेकर दो जैन दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण एवं स्वाध्याय की बात कहता दल बन गये । स्वार्थवादी विचारक जिनमें हाब्स, नीत्शे प्रभृति प्रमुख है, इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है, लेकिन इसके साथ ही वह कषायात्मा हैं, यह मानते हैं कि मनुष्य प्रकृत्या केवल स्वार्थ या अपने लाभ से के विसर्जन, वासनात्मक आत्मा के त्याग को भी आवश्यक मानता है प्रेरित होकर कार्य करता है । वे मानते हैं कि नैतिकता का वही सिद्धान्त और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी कहा जा सकता है। यदि हम मैकेन्जी समुचित है जो मानव प्रकृति की इस धारणा के अनुकूल हो । उनकी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह माने कि व्यक्तिगत साध्य की दृष्टि में अपने हित के कार्य करने में ही मनुष्य का श्रेय है। दूसरी ओर सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है, बेन्थम, मिल प्रभृति विचारक मानव की स्वसुखवादी मनोवैज्ञानिक तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी दोनों ही सिद्ध होता है। प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक आधार पर यह सिद्ध करते हैं वह व्यक्तिगत आत्मा से मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण कि परहित की भावना ही नैतिक दृष्टि से उचित है । नैतिक जीवन का स्वार्थवादी तो होगा ही लेकिन दूसरे की मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने साध्य परार्थ है । प्रो० मिल केवल परार्थ को स्वार्थ के बौद्धिक आधार के कारण परार्थवादी भी कहा जा सकेगा । यद्यपि आत्म कल्याण, पर सिद्ध कर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते वरन् आंतरिक अंकुश (Internal वैयक्तिक बंधन एवं दु:ख से निवृत्ति के दृष्टिकोण से तो जैन साधना का Sanition) के द्वारा उसे स्वाभाविक भी सिद्ध करते हैं, उनके अनुसार प्राण आत्महित ही है तथापि जिस लोक करुणा एवं लोकहित की यह आंतरिक अंकुश सजातीयता की भावना है जो कि मानव में यद्यपि अनुपम भावना से अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है उसे भी नहीं जन्मजात नहीं है, फिर भी अस्वाभाविक या अनैसर्गिक भी नहीं हैं। दूसरे झुठलाया जा सकता । अन्य विचारक भी जिनमें बटलर, कोंत, शॉपनहॉवर एवं टालस्टाय आदि प्रमुख हैं, मानव की मनोवैज्ञानिक प्रकृति में सहानुभूति, प्रेम आदि जैन साधना में लोकहित के तत्त्वों की उपस्थिति दिखाकर परार्थवादी या लोक मंगलकारी आचार्य समन्तभद्र जिनस्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवान् ! आचारदर्शन का सर्मथन करते हैं । हरबर्ट स्पेन्सर से लेकर ब्रेडले, ग्रीन, आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के दु:खों का अन्त अरबन आदि समकालीन विचारकों तक की एक लम्बी परम्परा ने मानव करने वाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए स्वार्थवाद और परार्थवाद में बढ़कर लोक आदर्श और लोक मंगल की कामना क्या हो सकती है ? सामान्य-शुभ (Common Good) के रूप में समन्वय साधने का प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक आगम ग्रन्थ में कहा गया है- भगवान् का प्रयास किया है। मानव प्रकृति में विविधताएँ हैं, उसमें स्वार्थ और यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं । आचारदर्शन का कार्य लिए है । जैन साधना लोक मंगल की धारणा को लेकर ही आगे यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धान्त बढ़ती है। आगे उसी सूत्र में बताया गया है कि जैन साधना की का समर्थन या विरोध करे । उसका कार्य तो यह है कि “स्व' और 'पर' पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं । अहिंसा की के मध्य संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके। भारतीय विवेचना करते हुए प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है कि साधना के • आचारदर्शन कहाँ तक और किस रूप में स्व और पर के मध्य संघर्ष प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने की सम्भावना को समाप्त करते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें वाली है । यह भगवती अहिंसा प्राणियों में भयभीतों के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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