Book Title: Jain Yati Parampara
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 7
________________ जैन यति परम्परा ७७ . -.-.-. -. -.-.-.-.-. -. -. -. -.-.-.-.-...-.-.-. -. -. -. -. -. -. -. -.-.-.-. ... . .... १८वीं शताब्दी तक यति समाज में ज्ञानोपासना सतत चालू थी, अत: उनके रचित बहुत से अच्छे-अच्छे ग्रन्थ इस समय तक के मिलते हैं, पर १८वीं शताब्दी से ज्ञानोपासना क्रमश: घटती चली। अतः इस शताब्दी के बाद विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ बहुत कम मिलते हैं । और वह घटते-घटते वर्तमान अवस्था को प्राप्त हो गई। यति समाज की पूर्वावस्था के इतिहास पर सरसरी तौर के ऊपर विचार किया गया । इस उत्थान-पतनकाल के मध्य में यति समाज में धुरंधर विद्वान, शासन प्रभावक, राज्य-सम्मान प्राप्त अनेक महापुरुष हो गये हैं, जिन्होंने जैन शासन की बड़ी भारी सेवा की है, प्रभाव विस्तार किया है, अन्य आक्रमणों से रक्षा की है एवं लाखों जैनेतरों को जैन बनाया, हजारों अनमोल ग्रन्थ-रत्नों का निर्माण किया, जिसके लिये जैन समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। अब यति समाज की वर्तमान अवस्था' का अवलोकन करते हुए इनका पुनः उत्थान कैसे हो इस पर कुछ विचार द्रष्टव्य हैं। जो पहले साधु या मुनि कहलाते थे, वही अब यति कहलाते हैं । पतन की चरम सीमा हो चुकी है। जो शास्त्रीय ज्ञान को अपना आभूपण समझते थे, ज्ञानोपासना जिनका व्यसन-सा था, वे अब आजीविका, धनोपार्जन और प्रतिष्ठा रक्षा के लिये वैद्यक, ज्योतिष और मंत्र-तंत्र के ज्ञान को ही मुख्यता देने लगे हैं। कई महात्मा तो ऐसे मिलेंगे जिन्हें प्रतिक्रमण के पाठ भी पूरे नहीं आते । गम्भीर शास्त्रालोचन के योग्य तो अब शायद ही कोई व्यक्ति खोजने पर मिले । क्रियाकाण्डों को जो करवा सकते हैं (प्रतिक्रमण, पोसह, पर्व व्याख्यान वाचन, तप, उद्यापन एवं प्रतिष्ठाविधि) वे अब विद्वान गिने जाने लगे हैं। __ जिस ज्ञानधन को उनके पूर्वजों ने बड़े ही कष्ट से लिख-लिखकर संचित एवं सुरक्षित रखा, वे अमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थों को संभालते तक नहीं । वे ग्रन्थ दीमकों के भक्ष्य बन गये, उनके पृष्ठ नष्ट हो गये, सर्दी आदि से सुरक्षा न कर सकने के कारण ग्रन्थों के पत्र चिपक कर थोपड़े हो गये । (हमारे संग्रह में ऐसे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित हैं ।) नवीन रचने की विद्वत्ता को तो सदा के लिये प्रणाम कर दिया, पुराने संचित ज्ञानधन की भी इतनी दुर्दशा हो रही है कि उसे सुनकर आँसू बहाने पड़ रहे हैं । सहज विचार आता है कि इन ग्रन्थों को लिखते समय उनके पूर्वजनों ने कैसे भव्य मनोरथ किये होंगे कि हमारे सपूत इन्हें पढ-पढ़कर अपनी आत्मा एवं संसार का उपकार करेंगे। पर आज अपने ही योग्य वंशजों के हाथ इन ग्रन्थों की ऐसी दुर्दशा देखकर पूर्वजों की स्वर्गस्थ आत्माएँ मन ही मन न जाने क्या सोचती होंगी? उन्होंने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में कई बातें ऐसी लिख रखी हैं कि उन्हें ध्यान से पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता। मग्न दृष्टि कटि ग्रीवा, वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिख्यते शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ ग्रन्थों की सुरक्षा की व्यवस्था करते हुए लिखा है जलाद्रक्षेत् स्थलाद्रक्षेत् रक्षत् शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या एवं वदति पुस्तिका ।। अग्ने रक्षेत् जलाद्रक्षेत् मूषकेभ्यो विशेषतः । उदकानिलचौरेभ्यो मूषकेभ्यो हुताशनात् ॥ कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् ।। मुनि आचार की तो गंध भी नहीं रहने पाई, पर जब हम उन्हें श्रावकों के कर्तव्य से भी च्युत देखते हैं, तब कलेजा धड़क उठता है, बुद्धि भी कुछ काम नहीं देती कि हुआ क्या ? भगवान् महावीर की वाणी को सुनाने वाले १. इसका संक्षेप में कुछ वर्णन कालूराम बरडिया लिखित 'ओसवाल समाज की वर्तमान परिस्थिति' में भी पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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