Book Title: Jain Vidyao ke Katipay Upadhi Nirapeksha Shodhkarta Author(s): Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 4
________________ 94 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड शोधदिशा को प्रसारित किया है। आप बाल साहित्य एवं अनुदित साहित्य के पुरस्कृत लेखक है और जन-संस्कृति के सिद्धान्तों के सार्वजनिक प्रसार में रुचि रखते हैं। आप अनेक शोध एवं धर्म प्रचार संस्थाओं से सम्बद्ध है / इस समय आप विश्वविद्यालय अनु० आयोग की योजना में सेवानिवृत्त्युत्तर कार्यरत है। आप दि० जैन साहित्य के एक आगम ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद भी कर रहे हैं / मुनिश्री महेन्द्रकुमार (1938-) : बीसवीं सदी की जैन विद्या शोधों में साधु वर्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान है / बम्बई से बी० एस० सी० (आनर्स) करते समय ही मुनिश्री जी के मन में जैन धर्म और विज्ञान की मान्यताओं के तुलनात्मक अध्ययन की प्रवति जगी थी। सन 1958 से लेकर आजतक वे इसी के अनरूप कार्य कर रहे हैं। उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार 1985 तक उन्होंने 7 पुस्तकं, 15 लेख, 21 अनुवाद तथा 24 सम्पादन कार्य किये है / ये कार्य हिन्दी और अंग्रेजी-दोनों भाषाओं में हैं। इनमें से बहतेरे कार्य प्रेक्षा ध्यान पद्धति के वैज्ञानिक पहलओं पर में उन्होंने विश्व के स्वरूप, आकाश-काल की स्वरूप व्याख्या, पुनर्जन्म, परमाणुवाद एवं भौतिक जगत् के जैन-दार्शनिक एवं वैज्ञानिक स्वरूपों का अध्ययन कर वैज्ञानिक जगत् को एक नया चिन्तन दिया। आजकल आप प्रेक्षाध्यान पर विशेष प्रयोग और कार्य कर रहे हैं / 'जैन धर्म का विश्वकोष' भी आपके सम्पादन में आने वाला है। (ब) उपाध्युत्तर शोधकर्ता 1) डा. जे. सी. सिकन्दर (1924-): श्री सिकन्दर ने जैन विद्याओं में बिहार तथा जबलपुर विश्वविद्यालय से पी. एच-डी, एवं डो-लिट उपाधि प्राप्त की है। सम्भवतः ये जैन विद्याओं में दो उच्चतम शोध-उपाधिधारियों में सर्वप्रथम है। / कुछ दिन पूर्व बिजनौर के डा० रमेशचन्द्र जी को द्वितीय शोध उपाधि मिली है / ) इन्होंने भगवती सूत्र एवं जैनों के परमाणुवाद पर शोध की है। इस शाध को विस्तृत कर इन्होंने एल० डी० इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद में शोधाधिकारी के पद पर रहकर उत्तरकाल में रसायन, भौतिकी, जीव-विज्ञान के विषय भी समाहित किये। उपलब्ध सूची के अनुसार इन्होंने 1960 से अब तक लगभग दो दर्जन शोध-लेख लिखे हैं। इन्हें सम्पादित कर प्रकाशित करना अत्यन्त उपयोगी होगा। इनके समय में अनेक जैन और जैनेतर विद्वानों ने जैनदर्शन का वैज्ञानिक मान्यताओं पर शोध की है और नये-नये तुलनात्मक तथ्य उद्घाटित किये है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम से इसका शोध निबंध --जन कन्सेप्ट आव मैटर-अभी प्रकाशित हुआ है / (1971) तथा चंडीगढ़ से गणित ज्यौतिष में ससम्मान पी० एच-डी० (1978) किया है। वे छह भाषाओं के जानकार है / एम० ए० करने के बाद ही जैन ज्योतिष और गणित की कुछ विशेषताओं ने उन्हें आकृष्ट क्यिा / तब से अब तक उनके 43 शोध-पत्र प्रकाशित हुए हैं। इनमें जन ग्रन्थों-भगवती सूत्र, सूर्य प्रज्ञप्ति, भद्रबाहु संहिता आदि में विद्यमान लम्बाई एवं समय की इकाइयाँ, चपटी-पृश्वी, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, मेरु-पर्वत और जम्बू द्वीप तथा जन ज्योतिष की अनेकों तुलनात्मक विशेषताओं पर उन्होंने विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है। अनेक लेखों में इन्होंने आधनिक मान्यताओं के साथ अनेक प्रकार की विसंगतियाँ तो बतायी है, पर उन्हें सुसंगत करने का उपाय नहीं सुझाया / इनका 'जन एस्ट्रोनोमी' नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ अभी प्रकाशित हुआ है / इनसे जैन समाज को बड़ी आशाएँ हैं / श्री एल. सी० जैन इनके प्रेरकों में से एक हैं। ये अनेक जन गणित एवं ज्योतिष के ग्रन्थों का समालोचनात्मक अध्ययन करना चाहते हैं। मुझे लगता है कि यदि इन्हें समचित सुविधाएँ प्रदान को जावें, तो ये जैनों की वैज्ञानिक मान्यताओं के क्षेत्र में स्मरणीय काम कर सकते है। इन्होंने देश-विदेश के अनेक सम्मेलनों में अपने विषय पर शोध-पत्र प्रस्तुत कर जैन विद्याओं का सम्मान बढ़ाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4