Book Title: Jain Vidwan ke Sandarbha me Somadevasuri krut Yashstilaka Champoo me
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 7
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अन्य धर्म एवं दर्शनों की समीक्षा कवि ने अपने ग्रंथ में भारतीय दर्शनों की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए अन्य दर्शनों पर भी विभिन्न प्रमाणों सहित अपनी लेखनी चलायी है / वैशेषिक दर्शन की मोक्ष विषयक मान्यता के पा है कि : द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय तथा अभाव इन सात पदार्थों का सदृश धर्म व वैधर्म्य मूलक शास्त्र सम्बन्धी तत्व ज्ञान से मोक्ष होता है। जिस प्रकार भूखे मनुष्य की इच्छा मात्र से ऊमर-फल नहीं पक जाते बल्कि प्रयत्नपूर्वक पकते हैं उसी प्रकार मात्र तत्वों के श्रद्धान से मोक्षप्राप्ति नहीं होती, इसके लिए सम्यक् चारित्र रूप प्रयत्न साध्य है / समस्त पीने योग्य, न पीने योग्य, खाने योग्य, न खाने योग्य, पदार्थों के खाने-पीने में निःशंकित चित्तवृत्तिपूर्वक प्रवृत्ति करने से कोलमतानुसार मुक्ति-प्राप्त होती है यदि उक्त कथन सत्य मान लिया जाये तो ठगों को व वधिकों को सबसे पहले मुक्ति होनी चाहिए, कौलमार्ग के अनुयायियों की बाद में / क्योंकि ठग व वधिक लोग कौलाचार्य की अपेक्षा पाप प्रवृत्ति में विशेष निडर होते हैं / इसी तरह कवि ने हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं की ईश्वरीय मान्यता को मिथ्या बताते हुए कहा है कि-ब्रह्मा, विष्णु, महेश व सूर्य आदि देवता राग-द्वेष आदि दोषों से युक्त होने के कारण आप्त (ईश्वर) नहीं कहे जा सकते / क्योंकि ब्रह्मा तिलात्मा में, विष्णु लक्ष्मी में, तथा महेश पार्वती में आसक्त रहते हैं। जो राग-द्वेष का कारण है। सूर्य की पूजा-निमित्त जल चढ़ाना, ग्रहण के समय तालाब व समुद्र में धर्म समझकर स्नान करना, वृक्ष, पर्वत, गाय तथा पर धर्म के शास्त्रों की पूजा करना आदि लोक में प्रचलित अंधविश्वासों को कवि ने मिथ्या धारणायें बताया है तथा जिनके पालन का भी निषेध किया गया है। गचिंतामणि, धर्मपरीक्षा, चन्द्रप्रभचरितं, शान्तिनाथ चरित, नीतिवाक्यामृतं, सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मशर्माभ्युदय, तिलकमंजरी आदि समकालीन प्रतिनिधि जैन संस्कृत ग्रंथ हैं जिनमें जैनधर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों की चर्चा करते हुए परमत खण्डन की परम्परा देखने को मिलती है / इस प्रकार कवि ने प्रस्तुत ग्रंथ में विभिन्न धार्मिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है तथा विभिन्न प्रमाणों सहित अन्य दर्शन की मान्यताओं का खण्डन करते हए सच्चे धर्म तथा सदाचार के पथ को प्रशस्त किया है। 9.5 1. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यं (दीपिका), उत्तरार्द्ध पु० 183 3. वही उत्तरार्द्ध पृ. 184 5. वही 6/63, 65/197, 198 2. वही 6/20/188 4. वही (उत्तरार्द्ध) पृ० 189 6. वही 6/139, 142/211 188 | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य Artm DON

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