Book Title: Jain Vichardhara me Shiksha Author(s): Chandmal Karnavat Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 2
________________ HIसाध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) iiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiHR जवाहराचार्य के विचार से 'शिक्षा सम्बन्धी जैन विचारधारा धार्मिक चिन्तन-मनन की सहभागिनी भूमिका के रूप में ही पनपी तथा विकसित हुई है । परन्तु इससे यह नहीं माना जाय कि शिक्षा में समाज की उपेक्षा की गई है। आचार्य जवाहर के अनुसार धर्म और समाज व्यवस्था अतः शिक्षा जहाँ सामाजिक व्यवस्था का अनिवार्य अंग है, वहाँ धार्मिक प्रक्रिया का भी । अतः शिक्षा सम्बन्धी जैन विचारधारा जितनी धार्मिक है उतनी ही सामाजिक भी। (२) शिक्षा विवेक शक्ति का विकास है जैनागम दशवैकालिक में लिखा गया है: पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी कि काही, किं वा नाहिइ सेय-पावगं ।।। अर्थात् संयतात्माएँ पहले ज्ञान और पीछे दया (क्रिया) का आराधन करते हुए संयम मार्ग में अग्रसर होते हैं। क्योंकि अज्ञानी क्या आराधना करेगा? वह ज्ञान के अभाव में अपने कल्याण-अकल्याण का कैसे विभेद करेगा? यह कहकर जैन परम्परा में शिक्षा को विवेक शक्तियों के विकास का पर्याय माना है । जैन दृष्टि के अनुसार हिताहित, उचितानुचित तथा श्रेय और अश्रेय में भेद करके हित और श्रेय का निर्णय करने की क्षमता का विकास ज्ञान है अथवा शिक्षा है। शिक्षा के अर्थ में जैन साहित्य में 'सम्यकज्ञान' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है जीवादि तत्त्वों का यथार्थ और सही ज्ञान । बहुत संक्षेप में कहें तो अपने आपका और अजीव तत्त्वों में सम्पूर्ण सृष्टि का परिवेश का ज्ञान और यथार्थ ज्ञान सम्यक्ज्ञान या शिक्षा है । आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन या सही श्रद्धा का व्याख्या स्वरूप लिखा 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्दर्शनम्'-' यही बात सम्यक्ज्ञान के लिए भी घटित होती है क्योंकि तत्त्वों में सही आस्था या विश्वास के साथ ही ज्ञान सम्यक्ज्ञान बनता है। इन जीव अजीव पुण्य पाप आदि ह तत्त्वों में से हेय, ज्ञेय और उपादेय का विभेद करके हेय को त्यागना और उपादेय को ग्रहण करना वांछनीय है । इन शक्तियों के विकास को ही सम्यक्ज्ञान माना है और यही सच्ची शिक्षा है। __ श्री स्थानांग सूत्र में धर्म के दो भेद करते हुए बताया गया-'सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव ।' अर्थात् धर्म दो प्रकार का है - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म। श्रुत अकादमिक पक्ष है जिसमें तत्त्वों की जानकारी इष्ट है तो चारित्रधर्म-आचरणपरक है । इस प्रकार विवेक विकास के लिए शास्त्रों का अध्ययन और उनका आचरण दोनो आवश्यक है। (३) विश्वक्य भाव का विकास शिक्षा है सूत्र साहित्य में ‘एगे आया' कहकर कि 'आत्मा एक है' सम्पूर्ण चेतन जगत की एकता को प्रमाणित कर दिया है। श्री आचारांग सूत्र का कथन कि 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तु शासित करना चाहता है, जिसे परिताप देना चाहता है वह भी तू ही है ।' यह आत्मवत् बुद्धि सम्पूर्ण प्राणिजगत की एकता का मूलाधार है ।' श्री दशवैकालिक सूत्र में कहा गया कि जो सभी जीवों को आत्मवत् समझता है वह आश्रवों कर्मों के आगमन को रोककर पापकर्म का बन्ध नहीं करता । दूसरे शब्दों में मुक्तावस्था की ओर अग्रसर होता है । जैन विचारधारा में इन गुणों के विकास की अपेक्षा की गई है - E FREEERAILER :::: जैन विचारधारा में शिक्षा : चांदमल करनावट | २३३ ::::: HPage Navigation
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