Book Title: Jain Vakya Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 5
________________ १५० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ होकर अर्थबोध कराने में समर्थ नहीं है। उनकी अर्थबोध सामर्थ्य उनकी जब तक पदों के अर्थों अर्थात् पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान पारस्परिक सापेक्षता में ही निहित है। विभिन्न पदों की पारस्परिक नहीं होता है तब तक वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है। वाक्यार्थ के बोध सापेक्षता (साकांक्षता) और पद एवं वाक्य की सापेक्षता में ही वाक्यार्थ के लिए दो बातें आवश्यक हैं- प्रथम पदों के अर्थ का ज्ञान और दूसरे की अभिव्यक्ति होती है। परस्पर निरपेक्ष पद तथा वाक्य निरपेक्ष पद पदों के पारस्परिक सम्बध का ज्ञान। पुन: पदों के पारस्परिक सम्बन्ध के और पद निरपेक्ष वाक्य की न तो सत्ता ही होती है और न उनमें भी चार आधार हैं- (१) आकांक्षा, (२) योग्यता, (३) सन्निधि और अर्थबोध कराने की सामर्थ्य ही होती है। (४) तात्पर्य। १. आकांक्षा- प्रथम पद को सुनकर जो दूसरे पद को सुनने वाक्यार्थबोध सम्बन्धी सिद्धान्त की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होती है- वही आकांक्षा है। पुनः एक पद की वाक्य के अर्थ (वाच्य-विषय) का बोध किस प्रकार होता है दूसरे पद को जो अपेक्षा रहती है वही आकांक्षा है। आकांक्षारहित इस प्रश्न को लेकर भारतीय चिन्तकों में विभिन्न मत पाये जाते हैं। अर्थात् परस्पर निरपेक्ष-गाय, अश्व, पुरुष, स्त्री आदि अनेक पदों के नैयायिक तथा भाट्ट-मीमांसक इस सम्बन्ध में अभिहितान्वयवाद की उच्चारण से वाक्य नहीं बनता है। जब कि साकांक्ष अर्थात् परस्पर स्थापना करते हैं। इनके विरोध में मीमांसक प्रभाकर का सम्प्रदाय सापेक्ष पद ही वाक्य की रचना करते हैं। अन्विताभिधानवाद की स्थापना करता है। हम इन सिद्धान्तों का विवेचन २. योग्यता- 'योग्यता' का तात्पर्य है कि अभिहित पदार्थों और जैन दार्शनिकों के द्वारा की गई इनकी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए के पारस्परिक सम्बन्ध में विरोध या बाधा नहीं होना चाहिए अर्थात् हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि वाक्यार्थबोध के सम्बन्ध में समुचित उनमें पारस्परिक सम्बन्ध की सम्भावना होना चाहिए। उदाहरणार्थ आग दृष्टिकोण क्या हो सकता है? से सींचो- इस पद समुदाय में योग्यता नहीं है क्योंकि आग का सींचने से कोई सम्बन्ध है। अत: ऐसे असम्बन्धित या योग्यता से रहित पदों अभिहितान्वयवाद (पूर्वपक्ष) से सार्थक वाक्य नहीं बनता है। कुमारिलभट्ट की मान्यता है कि वाक्यार्थ के बोध में हमें ३. सन्निधि- सन्निधि का तात्पर्य है- एक ही व्यक्ति द्वारा सर्वप्रथम पदों के श्रवण से उन पदों के वाच्य-विषयों अर्थात् पदार्थों बिना लम्बे अन्तराल के पदों का उच्चारण होना। न तो अनेक व्यक्तियों का बोध होता है। उसके पश्चात् उनके पूर्व में अज्ञात पारस्परिक सम्बन्ध द्वारा बिना अन्तराल के अर्थात् एक साथ बोले गये पदों से वाक्य बनते का बोध होता है और उनकी सम्बद्धता के बोध से वाक्यार्थ की प्रतीति हैं और न एक व्यक्ति द्वारा लम्बे अन्तराल अर्थात् घण्टे-घण्टे भर बाद होती है। इस प्रकार अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्यार्थ के प्रति होने वाले पदों के उच्चारण से वाक्य बनता है। पदार्थों का ज्ञान ही कारणभूत है, दूसरे शब्दों में पदों के अर्थपूर्वक ही ४. तात्पर्य- वक्ता के अभिप्राय को तात्पर्य कहते हैं। नैयायिकों वाक्यार्थ अवस्थित है। संक्षेप में पदों से अभिधाशक्ति के द्वारा पदार्थ के अनुसार यह भी वाक्यार्थ के बोध की आवश्यक शर्त है। बिना वक्ता का बोध होता है, फिर वक्ता के तात्पर्य अर्थात् वक्ता द्वारा किये गये के अभिप्राय को समझे वाक्यार्थ का सम्यक् निर्णय सम्भव नहीं होता विभक्ति प्रयोग के आधार पर उन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्य) है। विशेष रूप से तब जब कि वाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द द्वयार्थक हो, का ज्ञान होता है और इस अन्वयबोध (पदों के सम्बध ज्ञान) से जैसे 'सैन्धव', 'नव'। इसी प्रकार जब कोई शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में वाक्यार्थ का बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है क्योंकि इसमें या व्यंग्य रूप में प्रयुक्त किया गया हो या फिर वाक्य में कोई पद अभिहित अर्थात् पद द्वारा वाच्य पदार्थ के अन्वय अर्थात् पारस्परिक अव्यक्त रह गया हो। विभक्ति प्रयोग ही वक्ता के तात्पर्य को समझने का सम्बन्ध के ज्ञान से वाक्यार्थ का ज्ञान होता है। इस सिद्धान्त में वाक्यार्थ एक आधार होता है। का बोध तीन चरणों में होता है- प्रथम चरण में पदों को सुनकर उनके संक्षेप में, पदों को सुनने से प्रथम अनन्वित (असम्बन्धित) वाच्य अर्थात् पदार्थों का बोध होता है उसके पश्चात् दूसरे चरण में उन पदार्थ उपस्थित होते हैं फिर आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) का ज्ञान होता है। तब तीसरे अर्थात् विभक्ति-प्रयोग के आधार पर उनके परस्पर सम्बन्ध का बोध चरण में इस अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सिद्धान्त के होकर वाक्यार्थ का बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है। अनुसार वाक्य से स्वतन्त्र पदों (शब्दों) का एक अलग अर्थ होता है और पदों के इस अर्थ के ज्ञान के आधार पर ही वाक्यार्थ का निश्चय अभिहितान्वयवाद की समीक्षा होता है। दूसरे शब्दों में वाक्यार्थ का बोध पदों के अर्थबोध पर ही निर्भर जैन तार्किक प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में करता है, पदों के अर्थ से स्वतन्त्र होकर वाक्य का कोई अर्थ नहीं होता कुमारिल भट्ट के अभिहितान्वयवाद की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों का वाक्य से एवं दूसरे पदों से यदि वाक्य को सुनकर प्रथम परस्पर असम्बन्धित या अनन्वित पदार्थों निरपेक्ष स्वतन्त्र अर्थ भी होता है वाक्य पदों के 8 से निरपेक्ष किन्तु का बोध होता है और फिर उनका पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय ज्ञात अपना अर्थ नहीं रखता है। पद वाक्य से स्वतन्त्र अपना अर्थ रखता है। होता है तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उनका यह अन्वय (सम्बद्धीकरण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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