Book Title: Jain Tattvamimansa ki Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 3
________________ विरति, पाँच समिति और तीन गुप्तियों के पालन को ही धर्मास्तिकाय कहा गया है। इसी प्रकार प्राचीनकाल में अट्ठारह पापस्थानों के सेवन तथा पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का परिपालन नहीं करने को ही अधर्मास्तिकाय कहा जाता था। इसी प्रकार भगवतीसूत्र के सोलहवें शतक में यह प्रश्न उठाया गया कि लोकान्त में खड़ा होकर कोई देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं? इसका न केवल नकारात्मक उत्तर दिया गया अपितु यह भी कहा गया कि गति की सम्भावना जीव और पुद्गल में है और अलोक में जीव और पुद्गल का अभाव होने से ऐसा सम्भव नहीं है। यदि उस समय धर्मास्तिकाय को गति का माध्यम माना गया होता तो, पुद्गल का अभाव होने पर वह ऐसा नहीं कर सकता, इस प्रकार के उत्तर के स्थान पर ऐसा कहा जाता कि धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण वह ऐसा नहीं कर सकता। क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में मुक्त आत्मा का अलोक में गति न होने का कारण अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव ही बताया गया है। धर्मास्तिकाय गति में सहायक द्रव्य है और अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक द्रव्य है - यह अवधारणा एक परवर्ती घटना है, फिर भी इतना निश्चित है कि तत्त्वार्थसत्र के रचनाकाल तक अर्थात् तृतीय शताब्दी के उत्तरार्ध और चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्ध में यह अवधारणा अस्तित्व में आ गई थी। भगवती आदि में जो पूर्व संदर्भ निर्दिष्ट किए गए हैं उनसे यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल अर्थात् ई.पू. तीसरीचौथी शती तक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अर्थ धर्म और अधर्म की ही अवधारणाएँ थीं। नवतत्त्व की अवधारणा पंचास्तिकाय और षटजीवनिकाय की अवधारणा के समान ही नवतत्त्वों की अवधारणा भी जैन परम्परा की अपनी मौलिक एवं प्राचीनतम अवधारणा है। इस अवधारणा के मूल बीज आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी मिलते हैं। उसमें सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि (मोक्ष), असिद्धि (बन्धन) आदि के अस्तित्व को मानने वाली ऐकान्तिक विचारधाराओं के उल्लेख हैं (१/८/१/२०००)। इस उल्लेख में आम्रव-संवर, पुण्य-पाप तथा बंधनमुक्ति के निर्देश हैं, वैसे आचारांग सूत्र में जीव-अजीव.पुण्य-पाप, आम्रव-संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष - ऐसे नवों तत्त्वों के उल्लेख प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं, किन्तु एक साथ ये नौ तत्त्व हैं - ऐसा उल्लेख नहीं है। सूत्रकृतांग में अस्ति और नास्ति की कोटियों की चर्चा हुई है। उसमें जिन्हें अस्ति कहना चाहिए उनका निर्देश भी है। उसके अनुसार जिन तत्त्वों को अस्ति कहना चाहिए वे निम्न हैं- लोक, अलोक, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, बन्ध, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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