Book Title: Jain Tarka bhasha Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ ४५८ जैन धर्म और दर्शन ने के लिये उन्होंने तत्कालीन गुजराती भाषा में भी विविध रचनायें की। मौका पाकर कभी उन्होंने हिन्दी मारवाड़ी का भी आश्रय लिया । विषयदृष्टि से उपाध्यायजी का साहित्य सामान्य रूप से श्रागमिक, तार्किक दो प्रकार का होने पर भी विशेष रूप से अनेक विषयावलंबी है। उन्होंने कर्म-तत्त्व, आचार, चरित्र आदि अनेक श्रागमिक विषयों पर श्रागमिक शैली से भी लिखा है और प्रमाण, प्रमेय, नय, मंगल, मुक्ति, श्रात्मा, योग यादि अनेक तार्किक विषयों पर भी तार्किक शैली में खासकर नव्य तार्किक शैली से लिखा है । व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकार, दर्शन आदि सभी तत्काल प्रसिद्ध शास्त्रीय विषयों पर उन्होंने कुछ-न-कुछ, अति महत्त्व का लिखा है । शैली की दृष्टि से उनकी कृतियाँ खण्डनात्मक भी है, प्रतिपदनात्मक भी. हैं और समन्वयात्मक भी। जब वे खंडन करते हैं तब पूरी गहराई तक पहुँचते हैं । प्रतिपादन उनका सूक्ष्म और विशद है । वे जब योगशास्त्र और गीता आदि के तत्त्वों का जैन मन्तव्य के साथ समन्वय करते हैं तब उनके गंभीर चिंतन का और आध्यात्मिक भाव का पता चलता है । उनकी अनेक कृतियां किसी अन्य के ग्रन्थ की व्याख्या न होकर मूल, टीका या दोनों रूप से स्वतन्त्र ही हैं, जब कि अनेक कृतियां प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों की व्याख्यारूप हैं। उपाध्यायजी थे पक्के जैन और श्वेताम्बर फिर भी विद्याविषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वह अपने संप्रदायमात्र में समा न सकी, अतएव उन्होंने पातंजल योगसूत्र के ऊपर भी लिखा और अपनी तीव्र समालोचना की लक्ष्य - दिगम्बर परंपरा के सूक्ष्म प्रज्ञ तार्किक प्रवर विद्यानन्द के कठिनतर प्रष्टसहस्री नामक ग्रंथ के ऊपर कठिनतम व्याख्या भी लिखी । गुजराती और हिन्दी - मारवाड़ी में लिखी हुई उनकी अनेक कृतियों का थोड़ा बहुत वाचन, पठन व प्रचार पहिले से ही रहा है, परन्तु उनकी संस्कृत प्राकृत कृतियों के अध्ययन-अध्यापन का नामोनिशान भी उनके जीवन काल से लेकर ३० वर्ष पहले तक देखने में नहीं आया । यही सबब है कि ढाई सौ वर्ष जितने कम और खास उपद्रवों से मुक्त इस सुरक्षित समय में भी उनकी सत्र कृतियां सुरक्षित न रहीं । पठन-पाठन न होने से उनकी कृतियों के ऊपर टीका टिप्पणी लिखे जाने का तो संभव रहा ही नहीं, पर उनकी नकलें भी ठीक-ठीक प्रमाण में न होने पाई । कुछ कृतियां तो ऐसी भी मिल रही हैं, जिनकी सिर्फ एक-एक प्रति रही । संभव है ऐसी ही एक-एक नकल वाली अनेक कृतियां या तो लुप्त हो गई या किसी अज्ञात स्थानों में तितर बितर हो गई हों। जो कुछ हो, पर उपाध्यायजी का जितना साहित्य लभ्य है, उतने मात्र का ठीक-ठीक पूरी तैयारी के साथ अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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