Book Title: Jain Shraman sangh ki Shasan Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 4
________________ ५४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय ६. आचार्य-गच्छराज्य का सर्वोपरि शासक पुरुष 'आचार्य' कहलाता था. यह गच्छ का राजा माना जाता था, गथस्थविर ही आचार्य अथवा गच्छाचार्य कहलाता था. आचार्य संघस्थविर की व्यवस्थापिका सभा का सभासद् गिना जाता था. अथवा यों कहिये कि विशाल राष्ट्र में एक देशपति राजा का जैसा दर्जा होता है, वैसा ही दर्जा स्थविर राज्य में गच्छपति आचार्य का माना जाता था. यह सब होते हुए भी इसकी सत्ता कानूनबद्ध थी. हां, कुछ अनियंत्रित सत्ता भी इसे दी जाती थी कि जिसका उपयोग वह विशिष्ट अवसरों व संयोगों में करता था. संघ और गच्छ के सामने आचार्य की पूरी जवाबदारी रहती थी. वह कुछ अपराध करता तो सामान्य साधु से भी अधिक दण्ड पाता था. बार-बार कानून भंग करना, गच्छ के प्रतिकूल चलना, गच्छ की व्यवस्था करने में अयोग्य साबित होना इत्यादि कारणों से आचार्यों को अपने पद तक का त्याग करना पड़ता था. १०. उपाध्याय-'उपाध्याय' वर्तमान आचार्य का उत्तराधिकारी माना जाता था. इसको जैन-शास्त्रों में 'युवराज' की उपमा दी गई है. सचमुच ही यह पदाधिकारी युवराज की योग्यता रखता हुआ गच्छ के अनेक कार्यों में आचार्य का हाथ बंटाता था. गच्छवासी विद्यार्थी साधुओं को सूत्र पढ़ाना, यह उपाध्याय का मुख्य कर्तव्य होता था. ११. गणि-'गणि' शब्द का प्रयोग कहीं आचार्य के और कहीं उपाध्याय के अर्थ में किया गया है और कहा गया है कि आचार्य अथवा उपाध्याय की गैरहाजिरी में उन दोनों के कार्य 'गणि' चलाता था. यद्यपि गच्छ-व्यवस्थापिका सभा में इसकी कोई खास बैठक नहीं थी, फिर भी आचार्य और उपाध्याय के कार्यों का यह बड़ा सहायक था. इतना ही नहीं बल्कि उनकी गैरहाजिरी में यही आचार्य अथवा उपाध्याय माना जाता था. इस पदधर को आचार्य उपाध्याय का खानगी मन्त्री कह सकते हैं. १२. प्रवर्तक ---प्रवर्तक-गच्छ के बाह्य और आन्तरिक कार्यों का व्यवस्थापक मन्त्री था. बाल, वृद्ध और बीमार साधुओं की देखभाल रखना, अनजान साधुओं को गच्छ और संघ के सामान्य नियमों से वाकिफ कराना और गच्छ में वस्त्र-पात्र आदि जरूरी साधनों का प्रबन्ध करना आदि कार्य इस अधिकारी के सुपुर्द रहते थे. इस पदधर को गच्छराज्य का मन्त्री कह सकते हैं. १३. स्थविर स्थविर पदधर गच्छ का न्यायाधीश था, गच्छ के भीतरी तमाम झगड़ों के फैसले इसी अधिकारी के द्वारा किये जाते थे. गच्छ के सर्वोच्च शासक आचार्य तक को इसके फैसले मंजूर करने पड़ते थे. संघस्थविर की सभा में भी यही स्थविर गच्छाचार्य का प्रतिनिधि बनकर बहुधा जाया करता था. जो साधु न्यायशील होने के उपरान्त दण्डविधान (छेद) सूत्रों का अच्छा अभ्यासी होता उसी को यह 'स्थविर' पद दिया जाता था. १४. गणावच्छेदक-गणावच्छेदक का कार्य गण के भिन्न-भिन्न कुलों और शाखाओं के सम्बन्धों को व्यवस्थित रखना गण के साधुओं को भिन्न-भिन्न टुकड़ियों में बांटकर गीतार्थों की देखभाल में विहार कराना, गीतार्थों और उनके आश्रित साधुओं की बदलियां करना इत्यादि कार्य गणावच्छेदक के अधिकार में रहते थे. इस पदस्थ को हम गणराज्य का गृह-मंत्री कह सकते हैं. व्यवस्था-पद्धति-श्रमण संघ की व्यवस्था-पद्धति कैसी होगी, इसका कुछ आभास तो ऊपर दी हुई परिभाषाओं से ही हो जाता है, फिर भी अधिक स्पष्टता के लिये हम यहां इस व्यवस्था-पद्धति का कुछ विवेचन करेंगे. जिस प्रकार एक विशाल राष्ट्र में अनेक 'देश' और देशों में अनेक 'प्रान्त' होते हैं उसी प्रकार हमारे जैन-श्रमणसंघ में अनेक गण और गणों में अनेक 'कुल' होते थे. Jain Educa Maimary.org

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