Book Title: Jain Shraman Parampara ka Dharm Darshan
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ स्वरूप पर प्रकाश डालना इस कथन का मुख्य प्रयोजन है। उसी से हम जानते हैं कि मैं चिन्मात्र-ज्योति स्वरूप अखण्ड एक आत्मा हूं। अन्य जितनी उपाधि है वह सब मैं नहीं हूं। वह मुझसे भिन्न है। इतना ही नहीं, वह यह भी जानता है कि यद्यपि नर-नारकादि जीव विशेष, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष स्वरूप इन नौ पदार्थों में मैं ही व्यापता हूं। जीवन के रंग-मंच पर कभी मैं नारकीय बनकर अवतरित होता हूं तो कभी मनुष्य बनकर; कभी पुण्यात्मा की भूमिका निभाता हूं तो कभी पापी आदि की, इतना सब होते हुए भी मैं चिन्मात्र ज्योति-स्वरूप अपने एकत्व को कभी नहीं छोड़ता हूं। यही वह संकल्प है जो इस जीव को आत्म-स्वतन्त्रता के प्रतीक-स्वरूप मोक्षमार्ग में अग्रसर कर आत्मा का साक्षात्कार कराने में समर्थ होता है। ज्ञान-वैराग्य-सम्पन्न मोक्ष-मार्ग के पथिक की यह प्रथम भूमिका है। यह जीवों के आयतन जानकर पांच उदुंबरफलों तथा मद्य, मांस और मधु का पूर्ण त्यागी होता है। इनके त्याग को आठ मूलगुण कहते हैं जो इसके नियम से होते हैं। साथ ही वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग वाणी-स्वरूप जिनागम इसके आराध्य होते हैं। यह आजीविका के ऐसे ही साधनों को अपनाता है जिनमें संकल्पपूर्वक हिंसा की सम्भावना न हो। जैसे वन-दाह, तालाब से मछली दूसरी भूमिका का श्रमणोपासक व्रती होता है। व्रत बारह हैं—पांच अणुव्रत, तीन गुण-व्रत और चार शिक्षा-व्रत। यह इनका निर्दोष विधि से पालन करता है / कदाचित् दोष का उद्भव होने पर गुरु की साक्षीपूर्वक लगे दोषों का परिमार्जन करता है और इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए उस भूमिका तक वृद्धि करता है जहां जाकर लंगोटी मात्र परिग्रह शेष रह जाता है। __ तीसरी भूमिका श्रमण की है। यह महाव्रती होता है। यह वन में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जिन व्रतों को स्वीकार करता है उन्हें गुण कहते हैं / वे 28 होते हैं-५ महाव्रत, 5 समिति, 5 इंद्रियजय, 6 आवश्यक और 7 शेष गुण / शेष गुण, जैसे खड़े होकर दिन में एक बार भोजन-पानी लेना, दोनों हाथों को पात्र बनाकर लेना, केश लुंचन करना, नग्न रहना आदि। इसके जितना भी कार्य होता है, उसे वह स्वावलंबनपूर्वक ही करता है, मात्र इसलिए ही हाथों को पात्र बनाकर आहार ग्रहण करता है, हाथों से ही केशलुच करता है / रात्रि में भूमि पर एक करवट से अल्पनिद्रा लेता है, आदि। यह सब इसलिए नहीं किया जाता है कि शरीर को कष्ट दिया जाए। शरीर तो जड़ है, कुछ भी करो, उसे तो कष्ट होता नहीं। यदि कष्ट होता भी है तो करने वाले को ही हो सकता है। किन्तु श्रमण का राग-द्वेष के परवश न होकर शरीर से भिन्न आत्मा की सम्हाल करना मुख्य प्रयोजन होता है, इसलिए वे सब क्रियाएं उसे, जिन्हें हम कष्टकर मानते हैं, कष्टकर भासित न होकर अवश्य-करणीय भासित होती हैं। यह जैन धर्म-दर्शन का सामान्य अवलोकन है / इसे दृष्टि-पथ में लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका मुख्य प्रयोजन वेद, ईश्वरकतत्व और यज्ञीय हिंसा का विरोध करना पूर्व में कभी नहीं रहा है। इसके मूल साहित्य षट्खण्डागम, कषायप्रामृत, कुंदकुंद द्वारा रचित साहित्य, मूलाचार, रत्नकरंडश्रावकाचार, भगवती-आराधना आदि पर दृष्टिपात करने से उक्त तथ्य स्पष्ट हो जाता है। इसलिए जो मनीषी इसे सुधारवादी धर्म कहकर इसे अर्वाचीन सिद्ध करना चाहते हैं, जान पड़ता है, वस्तुतः उन्होंने स्वयं इन धर्मग्रंथों का ही ठीक तरह से अवलोकन किए बिना अपना यह मत बनाया है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान में भारतीय संस्कृति का जो स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, उसे न केवल ब्राह्मण या वैदिक संस्कृति कहा जा सकता है, और न ही श्रमण-संस्कृति कहना उपयुक्त होगा। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे स्वीकार कर लेने पर श्रमण-संस्कृति से अनुप्राणित होकर भारतीय संस्कृति में जो निखार आया है, उसे आसानी से समझा जा सकता है। इससे जिन तथ्यों पर विशेष प्रकाश पड़ता है, वे निम्न हैं (1) इसमें सदा से प्रत्येक द्रव्य का जो स्वरूप स्वीकार किया गया है, उसके अनुसार जड़-चेतन, प्रत्येक द्रव्य में अर्थक्रियाकारीपना सिद्ध होने से, व्यतिरेक रूप में परमार्थ से परकतत्व का स्वयं निषेध हो जाता है। (2) व्यक्ति अपने जीवन में वीतरागता अजित करे-यह इस धर्म-दर्शन का मुख्य प्रयोजन है। अहिंसा-आदि वीतरागता का ही दूसरा नाम है, तथा व्यवहार-रूप में वे उसके बाह्य साधन हैं। मात्र इसीलिए जैन धर्म में अहिंसा आदि को मुख्यता दी गई है। यज्ञादिविहित हिंसा का निषेध करना इसका मुख्य प्रयोजन नहीं है / जीवन में अहिंसा के स्वीकार करने पर उसका निषेध स्वयं हो जाता है। ये कतिपय तथ्य हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सुधारवाद की दृष्टि से जैन धर्म की संरचना नहीं हुई है / वह सनातन है। भारतीय जन-जीवन पर उसकी अमिट छाप है, और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जो पड़ोसी होते हैं उनमें आदान-प्रदान न हो—यह नहीं हो सकता। 1. समयसारकलश, 7 2. सागारधर्मामृत, 2/3 3. रत्नकरण्डश्रावकाचार, 4 4. सागारधर्मामृत, 1/13-14 5. वही, अ०२ व 5 6. प्रवचनसार, गा० 3/8-6 प्रत्येक द्रव्य का जोन का स्वयं निषेध हो जानन का मुख्य प्रयोग 32 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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