Book Title: Jain Shraman Parampara Ka Darshan
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भी स्वप्रतिष्ठ और अनादि-अनन्त माना गया है। छह द्रव्यों के नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें से काल द्रव्य सत्स्वरूप होकर भी शरीर के समान बहुप्रदेशी नहीं है, इसलिए उसे छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय माने गये हैं। पुद्गल शक्ति या योग्यता की अपेक्षा बहुप्रदेशी माना गया है । ___ संख्या की दृष्टि से जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गल द्रव्य उनसे अनन्त गुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं और काल द्रव्य असंख्यात हैं। ये सब द्रव्य स्वरूप सत्ता की अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी इन सबमें घटित हो ऐसा इनका एक सामान्य लक्षण है, जिस कारण ये सब द्रव्य पद द्वारा अभिहित किये जाते हैं । वह है-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । सद्रव्यलक्षणम् ।" जो सत्स्वरूप हो वह द्रव्य है या सत्स्वरूप होना द्रव्य का लक्षण है। यहाँ सत् और द्रव्य में लक्ष्य लक्षण की अपेक्षा भेद स्वीकार करने पर भी वे सर्वथा दो नहीं हैं, एक हैं-चाहे सत् कहो या द्रव्य दोनों का अर्थ एक है। इसी कारण जैन-दर्शन में अभाव को सर्वथा अभावरूप न स्वीकार कर उसे भावान्तर एवं भाव स्वीकार किया गया है । नियम यह है कि सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता । ऐसा होते हुए भी वह (सत्) सर्वथा कूटस्थ नहीं है-क्रियाशील है । यही कारण है कि प्रकृत में सत् को उत्साद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रयात्मक स्वीकार किया गया है। अपने अन्वय स्वभाव के कारण जहाँ वह ध्रौव्य है, वहीं व्यतिरेक (पर्यायरूप) धर्म के कारण वही उत्पाद-व्यय स्वरूप है । इन तीनों में कालभेद नहीं है। जिसे हम नवीन पर्याय का उत्पाद कहते हैं, यद्यपि वही पूर्व पर्याय का व्यय है, पर इनमें लक्षणभेद होने से ये दो स्वीकार किये गये हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य एक ही काल में त्रयात्मक है, यह सिद्ध होता है। इस त्रयात्मक द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, उसके ये तीनों ही अंश सत् हैं । इनमें कथचित् अभेद है, क्योंकि तीनों की सत्ता एक है । जो तीनों में से किसी एक की सत्ता है, वही अन्य दो की है। यह द्रव्य का सामान्य आत्मभूत लक्षण है। इससे प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है, यह सिद्ध होता है, क्योंकि समय-समय जो उत्पाद-व्यय होता है, वह उसका परिणामीपना है और ऐसा होते हुए भी वह अपने ५. तत्त्वार्थसूत्र ५, २९-३० । ७. प्रवचनसार गा० १०४ । ९. प्रवचनसार गा० १०२ । ६. भवत्यभावो हि भावधर्मः ।-युक्त्यनु० । ८. सर्वार्थसिद्धि ५-३० । १०. आप्तमीमांसा कारिका ५८ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6