Book Title: Jain Shiksha swarup aur Paddhati Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 6
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन त्राचार, तपाचार, वीर्याचार का पालन करने में समर्थ, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त होते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने गुरु के लक्षण बताते हुए कहा है महाव्रताधरा धीरा, भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था, धर्मोपदेशका गुरवो मताः । - योगशास्त्र २ / ८ अर्थात् महाव्रतधारी, धैर्यवान, शुद्ध भिक्षामात्र से जीवन-निर्वाह करने वाले, समताभाव में स्थिर रहने वाले, धर्मोपदेशक महात्मा गुरु माने गये हैं । जीवन-निर्माणकारी शिक्षा में आगे बढ़ने के लिये कौन योग्य-अयोग्य है, चर्चा की गई है । भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र के ११ वें अध्ययन में चर्चा करते हुए कहा है : अह अट्ठहि ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चइ | अहस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे ॥४॥ णासीले ण विसीले णं सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ||५|| शिक्षार्थी की पात्रता इसकी शास्त्रों में बड़ी शिक्षार्थी की पात्रता की अर्थात् इन आठ कारणों से व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करने के योग्य कहलाता है । १. जो अधिक हँसने वाला न हो, २. सदा इन्द्रिय दमन करता हो, ३. किसी का मर्म प्रकाशन न करता हो, ४. अखण्डित शील वाला हो, ५. अति लोलुप न हो, ६. श्रेष्ठ आचार वाला हो, ७. क्रोधी न हो और ८. सत्य में रत हो । उत्तराध्ययन सूत्र के ११वें अध्ययन की १२वीं गाथा में कहा गया है कि सुशिक्षित व्यक्ति स्खलना होने पर भी किसी पर दोषारोपण नहीं करता और न कभी मित्रों पर क्रोध करता है । यहाँ तक कि अप्रिय के लिए भी हितकारी बात करता है । शिक्षार्थी का विनीत और अनुशासनबद्ध होना आवश्यक माना गया है । " धम्मस्स विणओ मूलं" ( दशकालिक / २ / २) अर्थात् विनय को धर्म का मूल कहा गया है । 'दशवैकालिक सूत्र' के हवें अध्ययन में कहा है विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अर्थात् अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को संपत्ति । जिसने ये दोनों बातें जान ली हैं, वहीं शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी अध्याय में कहा गया है कि जो आचार्य और उपाध्याय की सेवा-शुश्रूषा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है, उसकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है जैसेसे सींचा हुआ वृक्ष - -जल विणियस्स य । अभिगच्छइ ॥ जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा । सिसिक्खा पवंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ - / १२ गुरु की आज्ञा न मानने वाला, गुरु के समीप रहकर भी उनकी शुश्रूषा नहीं करने वाला, उनके प्रतिकूल कार्य करने वाला तथा तत्त्वज्ञानरहित अविवेको अविनीत कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र १-३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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