Book Title: Jain Shiksha Paddhati Author(s): Sunita Jain Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 1
________________ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ ++ + ++ + ++ + + ++ + ++ ++ ++ + + ++ ++ + + + ++ ++ ++++ + ++ ++ ++ ++ ++ ++ H . .... .+ ++ ++ ० ० Cany जैन शिक्षा पद्धति ।। श्रीमती सुनीता जैन, एम० ए०, एम० एड०, वाराणसी [शिक्षा संकाय-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय] पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि भारत में प्राचीनकाल से ब्राह्मण और श्रमण विचारधाराओं का समानान्तर विकास होता रहा है। तीर्थंकर वृषभ श्रमण परम्परा के आदि अनुशास्ता रहे हैं। यह तीर्थकर परम्परा वृषभ या ऋषभ से लेकर ईसा पूर्व छठी शती में बर्द्धमान महावीर के उदय तक अविच्छिन्न रूप से चली आयी। गौतम बुद्ध द्वारा बौद्धधर्म की स्थापना के साथ श्रमण परम्परा में एक नयी इकाई जुड़ी जिसे सम्राट अशोक ने देश-देशान्तरों में प्रसारित किया। तीर्थकर परम्परा जैनधारा के रूप में स्थापित हुई। पिछले सौ वर्षों में भारतीय विद्याओं के उच्चानुशीलन की दिशा में भारतीय तथा विदेशी विद्वानों द्वारा जो प्रयत्न हुए हैं उसमें ब्राह्मण या वैदिक तथा बौद्ध परम्परा की अनुपम उपलब्धियाँ सामने आयी हैं किन्तु श्रमण या जैन परम्परा का अनुशीलन इस दृष्टि से लगभग सर्वथा अछूता है। प्राचीन भारतीय विचारधाराओं की इस महनीय परम्परा ने भारत-मनीषा को सम्पूर्ण रूप से व्याप्त किया है। जैनाचार्यों द्वारा विभिन्न विषयों पर लिखे सहस्रों ग्रन्थ एवं उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में व्याप्त शिल्प और कला निर्मितियाँ इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि जैन चिन्तकों ने ज्ञान-विज्ञान के हर पक्ष पर अपनी एक विशेष दृष्टि दी है। शिक्षा के क्षेत्र में जैन चिन्तकों ने जिस पद्धति का विकास किया वह बेजोड़ है। मानव व्यक्तित्व के समग्र विकास का उद्देश्य सामने रखकर जैन गुरुओं ने विभिन्न बौद्धिक स्तरों को ध्यान में रख कर शिक्षाविधियों का क्रम निर्धारण किया। लोकभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने के कारण उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति में अतिशय सफलताएँ उपलब्ध हुई। जीवन की चरम उपलब्धि 'निश्रेयस्' या मोक्ष को शिक्षा का केन्द्रबिन्दु मान कर जीव और जगत सम्पूर्ण ज्ञेयतत्त्व को शिक्षा का विषय बनाया। जड़ (मैटर) और चेतन (इनरजी) के समग्र अध्ययन का आध्यात्मिक और लौकिक शिक्षा के रूप में वर्गीकरण तथा लौकिक शिक्षा का चौसठ या बहत्तर कलाओं के रूप में अध्ययन शिक्षा के उत्तर-कालीन चरण हैं । जन शिक्षा पद्धति सम्पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक भूमि पर प्रतिष्ठित है। यही कारण है कि उसमें इन्स्ट्रक्सन की सहज सम्प्रेषणीयता है। गुरु, शिष्य और अभिभावक के उदात्त सम्बन्धों के कारण न वहाँ शिक्षा व्यवस्था की समस्याएँ हैं न अनुशासन-प्रशासन की । सम्यक्दृष्टि के स्फुरण के साथ सम्यग्ज्ञान की पूर्णता उसके प्रायोगिक ज्ञान सम्यक्चारित्र में निहित है । ऐसा ज्ञान ही 'निश्रेयस्' को उपलब्ध कराता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति पर जो पुस्तकें लिखी गयी हैं उनको देखने पर यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि उनका मुख्य आधार वैदिक वाङमय ही रहा है। डा० अनन्त सदाशिव अल्टेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति पर 'एजुकेशन इन एन्शिएण्ट इण्डिया' शीर्षक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी किन्तु उसमें जैन वाङमय की सन्दर्भ सामग्री का उपयोग नहीं हुआ। डा० राधाकुमुद मुकर्जी की 'एन्शिएण्ट इण्डियन एजुकेशन' में भी जैन स्रोतों का उपयोग नहीं हो पाया। प्राचीन भारतीय शिक्षा पर जो अन्य पुस्तकें लिखी गयीं उनमें भी जैन स्रोतों का उपयोग नहीं किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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