Book Title: Jain Shiksha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 5
________________ जैन शिक्षा दर्शन १९७ करना चाहिए।२१ शिल्पाचार्य और कलाचार्य के सम्मान की पद्धति श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आचार्य के धर्माचार्य के सम्मान की पद्धति से भिन्न थी। कलाचार्य और शिल्पाचार्य गुणों की संख्या ३६ स्वीकार की गयी हैं, किन्तु ये ३६ गुण कौनकी शिष्यगण तेलमालिश, स्नान आदि के द्वारा न केवल शारीरिक कौन हैं इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थकारों के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। सेवा करते थे, अपितु उन्हें वस्त्र, आभूषण आदि से अलंकृत कर सरस भगवती आराधना में आचारत्व आदि ८ गुणों के साथ-साथ, १० भोजन करवाते थे तथा उनकी आजीविका एवं उनके पुत्रादि के भरण- स्थिति कल्प, १२ तप और ६ आवश्यक, ऐसे ३६ गुण माने गये पोषण की योग्य व्यवस्था भी करते थे। दूसरी ओर धर्माचार्य को वन्दन हैं।२७ इसी के टीकाकार अपराजितसूरि ने ८ ज्ञानाचार, ८ दर्शनाचार, नमस्कार करना, उसके उपदेशों को श्रद्धापूर्वक सुनना, भिक्षार्थ आने १२ तप, ५ समिति और ३ गुप्ति- ये ३६ गुण मानें हैं।२८ पर आहारादि से उसका सम्मान करना- यही शिक्षार्थी का कर्तव्य श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग में आचार्य को आठ प्रकार की निम्न माना गया था।२२ ज्ञातव्य है कि जहाँ शिल्पाचार्य और कलाचार्य अपने गणि-सम्पदाओं से युक्त बतलाया गया है- १. आचार- सम्पदा, २. शिष्यों से भूमि, मुद्रा आदि के दान की अपेक्षा करते थे, वहाँ धर्माचार्य श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा, ४. वचन-सम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, अपरिग्रही होने के कारण अपने प्रति श्रद्धाभाव को छोड़कर अन्य कोई ६. मति-सम्पदा, ७. प्रयोग-सम्पदा (वादकौशल) और ८. संग्रह अपेक्षा नहीं रखते थे। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि शिल्पाचार्य और परिज्ञा (संघ व्यवस्था में निपुणता)।२९ प्रवचनसारोद्धार में आचार्य के कलाचार्य सामान्यतया गृहस्थ होते थे और इसलिए उन्हें अपने ३६ गुणों का तीन प्रकार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम उपरोक्त पारिवारिक दायित्वों को सम्पन्न करने के लिए शिष्यों से मुद्रा आदि की ८ गणि-सम्पदा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ३२ भेद अपेक्षा होती थी, किन्तु धर्माचार्य की स्थिति इससे भिन्न थी, वे होते हैं, इनमें आचार्य, श्रुत, विक्षेपणा और निर्घाटन- ये विनय में सामान्य रूप से संन्यासी और अपरिग्रही होते थे, अत: उनकी कोई चार भेद सम्मलित करने पर कुल ३६ भेद होते हैं। प्रकारान्तर से अपेक्षा नही होती थी। वस्तुत: नैतिकता और सदाचार की शिक्षा देने ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चरित्राचार के आठ-आठ भेद करने पर २४ का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता था जो स्वयं अपने जीवन में भेद होते हैं, इनमें १२ प्रकार का तप मिलाने पर ३६ भेद होते हैं। नैतिकता का आचरण करता हो और यही कारण था कि उसके उपदेशों कहीं-कहीं आठ गणि- सम्पदा, १० स्थितिकल्प, १२ तप और ६ एवं आदेशों का प्रभाव होता था। आज हम नैतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यक मिलाकर आचार्य में ३६ गुण माने गये हैं। प्रवचनसारोद्धार शिक्षा देने का प्रथम तो कोई प्रयत्न ही नहीं करते दूसरे उसकी अपेक्षा के टीकाकार ने आचार्य के निम्न ३६ गुणों का भी उल्लेख किया गया भी हम उन शिक्षकों से करते हैं जो स्वयं उस प्रकार का जीवन नहीं जी है- १. देशयुत, २. कुलयुत, ३. जातियुत, ४. रूपयुत, ५. रहे होते हैं, फलत: उनकी शिक्षा का कोई प्रभाव भी नहीं होता। यही संहननयुत, ६. घृतियुत, ७. अनाशंसी, ८. अविकथन, ९. अयाची, कारण है कि आज विद्यार्थियों में चरित्र निष्ठा का अभाव पाया जाता है, १०. स्थिर परिपाटी, ११. गृहीतवाक्य, १२. जितपर्षद्, १३. क्योंकि यदि शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों जितनिद्रा, १४. मध्यस्थ, १५. देशज्ञ, १६. कालज्ञ, १७. भावज्ञ, को वैसी शिक्षा नहीं दे पायेगा, कम से कम धर्माचार्य के सन्दर्भ में तो १८. आसन्नलब्धप्रतिम, १९. नानाविधदेश भाषा भाषज्ञ, २०. ज्ञानाचार, यह बात आवश्यक है। जब तक उसके जीवन में चारित्रिक और नैतिक २१. दर्शनाचार, २२. चारित्राचार, २३. तपाचार, २४. वीर्याचार, मूल्य साकार नहीं होंगे, वह अपने शिष्यों पर उनका प्रभाव डालने में २५. सूत्रपात, २६. आहरनिपुण, २७. हेतुनिपुण, २८. उपनयनिपुण, समर्थ नहीं होगा। चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक कहता है कि सम्यक् शिक्षा के २९. नयनिपुण, ३०. ग्राहणाकुशल, ३१. स्वसमयज्ञ, ३२. परसमयज्ञ, प्रदाता आचार्य निश्चय ही सुलभ नहीं होते।२३ ।। ३३. गम्भीर, ३४. दीप्तीमान, ३५. कल्याण करने वाला और ३६. जैन आगमों में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया सौम्य।३० गया है कि शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी कौन है? चंद्रवेध्यक इन गुणों की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों प्रकीर्णक में उन व्यक्तियों को शिक्षा के अयोग्य माना गया है, जो में आचार्य कैसा होना चाहिए इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार अविनीत हों, जो आचार्य का और विद्या का तिरस्कार करते हों, किया गया था और मात्र चरित्रवान एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठावान मिथ्यादृष्टिकोण से युक्त हों तथा मात्र सांसारिक भोगों के लिए विद्या व्यक्ति को ही आचार्यत्व के योग्य माना गया था। प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हों।२४ इसी प्रकार योग्य आचार्य कौन इससे यह फलित भी होता है कि जो साधक अहिंसादि हो सकता है इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो देश और महाव्रतों का स्वयं पालन करता है तथा आजीविका अर्जन हेतु मात्र काल का ज्ञाता, अवसर को समझने वाला, अभ्रान्त, धैर्यवान, अनुवर्तक भिक्षा पर निर्भर रहता है, जो स्वार्थ से परे है वही व्यक्ति आध्यात्मिक और अमायावी होता है, साथ ही लौकिक, आध्यात्मिक और वैदिक एवं नैतिक मूल्यों का शिक्षक होने का अधिकारी है। शास्त्रों का ज्ञाता होता है वही शिक्षा देने का अधिकारी है। इस ग्रन्थ में विद्यार्थी कैसा होना चाहिये, इसकी चर्चा करते हुए आचार्य की उपमा दीपक से दी गयी है। दीपक के समान आचार्य स्वयं उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो भिक्षाजीवी, विनीत, सज्जन भी प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।२६ व्यक्तियों के गुणों को जानने वाला, आचार्य की मनोभावों के अनुरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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