Book Title: Jain Shastro me Varnit Shiksha Sutra
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

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________________ 1 डॉ सुरेश सिसोदिया जैन शास्त्रों में वर्णित शिक्षा - सूत्र प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाईबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्व है, वही स्थान और महत्व जैनों के लिए आगम-साहित्य का है। सम्पूर्ण जैन आगम-साहित्य में नैतिक शिक्षा से सम्बन्धित अनेक सूत्र दृष्टिगोचर होते है। अर्द्धमागधी आगम साहित्य में चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक का रचनाकाल ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी से पूर्व का माना जाता है। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में सात द्वारों के माध्यम से सात गुणों का वर्णन किया गया है। ये सभी गुण वस्तुतत: व्यक्ति के चरित्र-निर्माण और उसके अन्तिम लक्ष्य समाधिमरण पूर्वक देह-त्याग की प्राप्ति करने में सहायक हैं। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में वर्णित विषय-वस्तु के शिक्षा-सूत्र इस प्रकार हैं: १. विनय गुण :- विनय गुण नामक प्रथम द्वार में जो कुछ वर्णन प्राप्त होता है उससे स्पष्ट होता है कि किसी शिष्य की महानता उसके द्वारा अर्जित व्यापक ज्ञान पर निर्भर नहीं है वरन् उसकी विनयशीलता पर आधारित है। गुरूजनों का तिरस्कार करने वाले विनय रहित शिष्य के लिए तो कहा है कि वह लोक में कीर्ति और यश को प्राप्त नहीं करता है किन्तु जो विनयपूर्वक विद्या ग्रहण करता है उस शिष्य के लिए कहा है कि वह सर्वत्र विश्वास और कीर्ति प्राप्त करता है (२-६)। विद्या और गुरू का तिरस्कार करने वाले जो व्यक्ति मिथ्यात्व से युक्त होकर लोकेषणा में फँसे रहते हैं ऐसे व्यक्तियों को ऋषिघातक तक कहा गया है (७-९)। विद्या को तो इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी सुखप्रद बतलाया है (१२)। विद्या प्रदाता आचार्य एवं शिष्य के विषय में कहा है कि जिस प्रकार समस्त प्रकार की विद्याओं के प्रदाता गुरू कठिनाई से प्राप्त होते हैं उसी प्रकार चारों कषायों तथा खेद से रहित सरलचित वाले शिक्षक एवं शिष्य भी मुश्किल से प्राप्त होते है (१४-२०)। यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में भी विनय गुण को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि विनय से पढ़ा गया शास्त्र यद्यपि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी वह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है। . २. आचार्य गुण:- विनय गुण के पश्चात् आचार्य गुण की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी के समान सहनशील, पर्वत ती तरह अकम्पित, धर्म में स्थित चन्द्रमा की तरह सौम्यकांति वाले, समुद्र के समान गम्भीर तथा देश काल के जानकर आचार्यों की सर्वत्र प्रशंसा होती है (२१३१)। आचार्यों की महानता के विषय में कहा गया है कि आचार्यों की भक्ति से जहाँ जीव इस लोक में कीर्ति और यश प्राप्त करता है वहीं परलोक में विशुद्ध देवयोनि और धर्म में सर्वश्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करता है (३२)। आगे कहा गया है कि इस लोक के जीव तो क्या देवलोक में स्थित देवता भी अपने आसन शय्या आदि का त्याग कर अप्सरा समूह के साथ आचार्यों की वन्दना के लिए जाते हैं (३३-३४)। त्याग और तपस्या से भी महत्त्वपूर्ण गुरूवचन का पालन मानते हुए कहा गया है कि अनेक उपवास करते हुए भी जो गुरू के वचनों का पालन नहीं करता वह अनन्तसंसारी होता है। (३५)। ३. शिष्य गुण:- आचार्य गुण के पश्चात् इस प्रकीर्णक ग्रन्थ में शिष्य गुण का उल्लेख हुआ है जिसमें कहा गया है कि नाना प्रकार से परिषहों को सहन करने वाले, लाभ-हानि में सुख-दुख रहित रहने वाले, अल्प इच्छा में संतुष्ट रहने वाले, शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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