Book Title: Jain Shastra aur Mantra Vidya
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf

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Page 1
________________ जैनशास्त्र और मंत्रविद्या ले. राममूर्ति त्रिपाठी भारतीय धर्म-साधना में अधिकार भेदभाव के अनुसार प्रस्थान-भेद है। श्रमण प्रस्थान का 'शासन', 'अनुशासन' या 'शंसन' करनेवाला शास्त्र भिन्न है और ब्राहमण प्रस्थान का भिन्न। श्रमण प्रस्थान में भी दो धाराएं हैं - बौद्धधारा और जैनधारा। जैनधारा में भी साधकों के संस्कार-भेद से अवान्तर धाराएं मिलती हैं इसी लिए उनका मूल शास्त्र आगम अपना है। इनके मूलभूत पवित्र ग्रन्थ दो प्रकार के हैं - चतुर्दशपूर्व और ग्यारह अंग। दिगम्बर माने हैं कि 'पूर्व संज्ञक मूल आगम विलुप्त हो गए हैं तथा विलुप्त १४ पुर्व के अवशिष्ट अंगों को दिवाय नामक बारहवें अंग में संकलित किया गया था - पर इस मान्यता पर दिगम्बर लोग आस्था नहीं रखते। जो हो - उनके मूल ग्रन्थ ये ही हैं। इनके सिद्धान्तों की संख्या ४६ हैं जिनमे ११ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, ६ छेदसूत्र, ४ मूलग्रन्थ तथा २ स्वतंत्र ग्रन्थ हैं। उमास्वाति को दोनों ही सम्प्रदाय के लोग सम्मान से देखते हैं। तत्वार्थ सूत्र उनका प्रामाणिक और सम्प्रदाय में समादरणीय ग्रन्थ है। सम्यक, ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यकू चारित्र - ये सम्मिलित रुप से मोक्ष के मार्ग माने जाते हैं। मोक्ष में सम्यक् श्रद्धा, श्रद्धापूर्वक उनका ज्ञान और आचरण में उनका उतर आना - तीनों ही सम्मिलित होकर उपादेय है। इस जैनशास्त्र का माहात्म्य बताते हुए 'समयसार' में कहा गया निहचै में रुप एक विवहार में अनेक, याही ते विरोध में जगत भरमाया है। जग के विवाद नासिवे कों जिन आगम है जामै स्थाद्राद नाम लच्छन सुहायो है। वरसन मोह जाको गयो है सहज रुप, आगम प्रमान ताके हिरेदे में आया है। अने सौं अखंडित अनूतन अनन्त तेज, ऐसौं पद पूरन तुरन्त तिनि पायौं है।५५|| जहाँ तक इस महनीय जैनशास्त्र में 'मंत्र' का सम्बन्ध है - सबसे पहली बात है - उसका स्वरुप निरुपण। तदनन्तर उसके विविध पक्षों पर विवेचन। जहां तक मंत्र के स्वरुप का सम्बन्ध है - मंत्र एक नाम है - जिसका अपास्य नाभी से सम्बन्ध है। 'नाम' (मंत्र) का दार्शनिक वैज्ञानिक विवेचन करते हुए माना गया है कि मंत्र, नाम और शब्द - किसी बिन्दु पर ये परस्पर पर्याय हैं। यह नाम या शब्द - दो प्रकार का है - निरतिशय और सातिशय (Pure and Approximate) इसी को प्रकृत और विकृत भी कह सकते हैं। बात यह है कि जो शब्द हम सुनतें हैं वह स्थूल है अर्थात् सातिशय है। कुछ शब्द ऐसे है जिन्हे हम मंत्र की सहायता से सुन सकते हैं - निश्चय ही वह शब्द स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म है। सूक्ष्म शब्दि संघातात्मक भी हो सकता है और परमाण्वात्मक भी। पूर्ववर्ती "दो रुप संमिश्र है और परवर्ती" एक अमिश्र। 'बृहद् द्रव्य संग्रह का कहना है सद्दो बंधो सुहुमौं थूलो संठाण मेदतम छाया। उज्जोदादवसहिया भुग्गलदव्वस्स पज्जाया।। त्याग, यही तो साधूता का लक्षण हैं, इसके बिना साधू होता ही नहीं है फिर चाहे जैसी पदवी प्राप्त हो जाय उसे। २४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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