Book Title: Jain Saptabhangi Adhunik Tarkashastra ke Sandharbh me Author(s): Bhikhariram Yadav Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 8
________________ २७ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में हमने स्वचतुष्टय के लिए A और परचतुष्टय के निषेध के लिए-B माना है । मेरा यह दावा नहीं है कि मेरा दिया हुआ उपर्युक्त प्रतीकीकरण अन्तिम एवं सर्वमान्य है। उसमें परिमार्जन की सं वना हो सकती है। आशा है कि विद्वान इस दिशा में अधिक गम्भीरता से विचार कर सप्तभङ्गी को एक सर्वमान्य प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदान करेंगे, ताकि उसके सम्बन्ध में उठनेवाली भ्रान्तियों का सम्यक्रूपेण निराकरण हो सके। अब सप्तभङ्गी की यह प्रतीकात्मकता संभाव्यता तर्कशास्त्र के उपर्युक्त प्रतीकीकरण के अनुरूप है। इसलिए यह उससे तुलनीय है। जिस प्रकार सप्तभङ्गी में उत्तर के चारों प्रकथन पूर्व के मुलभूत तीनों भंगों के सांयोगिक रूप हैं और प्रत्येक कथन को 'च' रूप संयोजन के द्वारा जोड़ा गया है, उसी प्रकार संभाव्यता तकशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धान्त में तीन मूलभूत भङ्गों की कल्पना करके आगे के भंगों की रचना में संयोजन अर्थात् कन्जंक्शन का ही पूर्णतः व्यवहार किया गया है। जिस क्रम में सप्तभंगी की विवेचना और विस्तार है, उसी क्रम का अनुगमन संभाव्यता तर्कशास्त्र का उक्त सिद्धान्त भी करता है। एक रुचिकर बात यह है कि सप्तभंगी के सातवें भंग में क्रमार्पण और सहार्पण रूप तीसरे और चौथे भंग का संयोग माना गया है। इस संदर्भ में सप्तभंगीतरंगिणी का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है-'अलग-अलग क्रम योजित और मिश्रित रूप अक्रम योजित द्रव्य तथा पर्याय का आश्रय करके 'स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च घटः' किसी अपेक्षा से सत्व-असत्व सहित अवक्तव्यत्व का आश्रय घट है-इस सप्तम भङ्ग की प्रवृत्ति होती है।' (पृ० ७२) इसका भाव यह है कि अस्ति और नास्ति भङ्ग के क्रमिक और अक्रमिक संयोग से अवक्तव्य भङ्ग की योजना है अर्थात अस्ति और नास्ति के योजित रूप 'अस्ति च नास्ति' में अस्ति-नास्ति के अक्रम रूप अवक्तव्य को जोड़ा गया है। अब यदि अस्ति A है, नास्ति-B और अवक्तव्य-c है, तो सातवें भङ्ग का रूप होगा, A-B में -C का योग । जो संभाव्यता तर्कशास्र के उपर्युक्त सिद्धान्त के अन्तिम कथन से मेल खाता है। जिस प्रकार सप्तभङ्गी में तीन मूल भङ्गों से चार ही यौगिक भङ्ग बनने की योजना है, उसी प्रकार संभाव्यता तकशास्त्र में भी तीन स्वतन्त्र घटनाओं के संयोग से चार सांयोगिक स्वतन्त्र घटनाओं की अभिकल्पना है। वस्तुतः ये सभी बातें जैन तर्कशास्त्र को स्वीकृत हैं। इसलिए इस प्रतीकात्मक प्रारूप को सप्तभङ्गी पर लागू किया जा सकता है। __ अब सप्तभङ्गी की मूल्यात्मकता को निम्न रूप से चित्रित करने का प्रयास किया जा सकता है । यदि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य अर्थात् A,-B और-C को एक-एक वृत्त के द्वारा सूचित किया जाये, तो उन वृत्तों के संयोग से बनने वाले सप्तभङ्गी के शेष चार भङ्गों के क्षेत्र इस प्रकार होंगे चिन-1 " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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