Book Title: Jain Sanskruti ki Viveshtaye Author(s): Manjushreeji Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 2
________________ संस्कृति की परिभाषाएँ और समुद्र को भरनेवाली नदियों के समान उनको पूरक और उपकारक __कहा जाता है कि भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों के मेल मानती है। से बनी हुई संस्कृति है। वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति, पाश्चात्य (4) आचार पक्ष की दृष्टि से अहिंसक वृत्तिवाले के लिए सत्य, संस्कृति आदि अनेक संस्कृतियाँ इस देश में फली-फूली हैं। इस देश अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना स्वयंसिद्ध हो जाती है। की मिट्टी, तन्त्र-मंत्र की साधना, स्त्री और शूद्र का बहिष्कार, यज्ञोपवीत यह साधना प्रवृत्ति निवृत्ति उभयरूपा है। जैसे हिंसा से निवृत्ति और धारण आदि ब्राह्मण परंपरा की देन हैं। दया, करुणा, अनुकंपा, परोपकार, प्रेम आदि में प्रवृत्ति से ही अहिंसावत जैन संस्कृति की साधना में समग्रता आती है। असत्य से निवृत्ति और हित-मित-मधुर सत्य-संभाषण में प्रवृत्ति से सत्य व्रत का समग्रत: पालन श्रमण संस्कृति की एक विशिष्ट धारा जैन संस्कृति के नाम से किया जा सकता है। इत्यादि। भारतीय इतिहास में सुविश्रुत रही है। उसकी अपनी पहचान है जिनेश्वर वीतराग की उपासना और विचार एवं आचारगत कतिपय अनन्य (5) इन पांचों व्रतों की आराधना गृहस्थी और संयमी जीवन साधारण विशेषताओं से वह मंडित है। की दृष्टि से स्तर-भेद रखती है। गृहस्थ व्यक्ति इनका अंशत: पालन करता है, अत: उसके द्वारा पालित ये व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं। जैन संस्कृतिकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ जबकि एक संयमी साधक इनका पूर्णत: पालन करता है, तब ये ही (1) जैन संस्कृति गुणों की उपासक संस्कृति है, व्यक्ति की नहीं। व्रत 'महाव्रत' संज्ञा से अभिहित किए जाते हैं। इसी कारण इसका प्रमुख मंत्र 'नमस्कार मंत्र' अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, (6) वैराग्य और त्याग प्रधान इस संस्कृति में गृही श्रावक और उपाध्याय और साधु के रूप में विश्व की सभी महान आत्माओं के मुनि बनने के लिए जाति-पाँति, धनी-निर्धन आदि का कोई भी बन्धन प्रति श्रद्धा एवं प्रणति ज्ञापित कराने वाला मंत्र है। स्वीकृत नहीं है। कोई भी गृहस्थ व्यक्ति श्रावक के 12 व्रतों को (2) यह संस्कृति निवृत्तिप्रधान संस्कृति है। प्रवृत्ति प्रधान अंगीकार कर सकता है / अस्पृश्य समझी जानेवाली जातियों में उत्पन्न संस्कृति इच्छा के परिष्कार पर बल देती है, जबकि यह इच्छा मात्र के लोग श्रमण दीक्षा स्वीकार कर मैत्री, कारुण्य आदि का उपदेश देते सर्वथा निरोध को ही मुक्ति का साधन मानती है। आत्मोपलब्धि और हैं। सामान्य स्त्री-पुरुषों से लेकर विद्वत्ता, शूरवीरता और वैभव से भवचक्र का उच्छेद इच्छा -निरोध से ही संभव है। सम्पन्न उच्चवर्णीय ब्राह्मण, सेनापति, धनकुबेर, श्रेष्ठी और (3) विचार और आचार दोनों ही पक्षों में जैनसंस्कृति राजा-महाराजा भी अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिए इस मार्ग का अहिंसात्मक है। अनेकान्त उसका विचार पक्ष है और अहिंसा उसका ___अवलम्बन लेते हैं। अवलम्बन लत ह आचार पक्ष है। विचार गत अहिंसा का अर्थ है-कदाग्रह अथवा य इस प्रकार जगत के जीवों के प्रति वात्सल्यमयी असाम्प्रदायिक मिथ्याआग्रह (एकान्त पक्ष का आग्रह) का त्याग / मेरा ही अभिमत यह जैन संस्कृति भ. ऋषभ देव से लेकर आज तक मानव को असद्गणों सत्य है, इसके बदले 'सत्य है सो मेरा है' का स्वीकार अनेकान्तवाद से निवृत्त करके सद्गणों में प्रवृत्ति का संदेश देते हुए व्यक्तिगत उत्कर्ष है। इस दृष्टि का अभिव्यक्ति पक्ष है-स्याद्वाद। इसी के आधार पर के साथ लोकमंगल का विधान करती आयी है। जैन संस्कृति अन्य सब दर्शनों का, संस्कृतियों का सम्मान करती है मधुकर - मौक्तिक सम्यक्ज्ञान - सहित जो क्रिया होती है, वह रचनात्मक है। उस शुद्ध क्रिया से यदि हम तनिक भी दूर हुए तो असत्-क्रिया के चक्कर में पड़ जाएँगे, जो हमारा मानस विकृत कर डालेगी। इससे हमारे विचार, वाणी और व्यवहार सब दूषित, मलिन हो जाएंगे। ऐसा न हो, इसीलिए नवकार मंत्र आँखें खोल कर सावधान हो कर चलने का सन्देश देता है। हमारे जीवन-पथ में अनेक आँधियाँ और अनेक, तूफान हैं। परमेष्ठी भगवन्तों का आलम्बन ले कर ही उनका मुकाबला करते हुए हमें आगे बढ़ना है। -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदना ग्रंथावाचना 58 माया ममता ना तजे, रखता चित्त कषाय / जयन्तसेन आत्म वही, जन्म जन्म दुः ख पाय // www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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