Book Title: Jain Sanskruti ki Visheshtaye Author(s): Rammurti Tripathi Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ " -. - -. -. -. -. -. - - . -. - जैन संस्कृति की विशेषताएं - डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म० प्र०) संस्कृति संस्कृति शब्द के तीन घटक हैं-सम्+स्+कृति । सम् का अर्थ है-सम्यक्, स्-का अर्थ है शोभाधायक तथा कृति का अर्थ है-प्रयत्न, इच्छापूर्वक किया गया व्यापार । इस प्रकार संस्कृति का सम्पिण्डित रूप में शब्दार्थ हुआशोभाधायक बिवेकसम्मत प्रयत्न । इच्छापूर्वक किया गया प्रयत्न जीवधारियों में ही संभव है। अभिप्राय यह कि प्राणीमात्र द्वारा संपाद्य जीवनधारणोपयोगी प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपी व्यापार ही पृथक् है। प्रयत्न जिस शक्ति से संपाद्य हैवह दो प्रकार की है-प्रकृति प्रदत्त या सहजात शक्ति तथा अजित शक्ति । पशु का शिशु तैरना जन्मत: जानता है, पर मनुष्य का शिशु उसे अजित करता है । यह अजित शक्ति बुद्धि या विवेक है। मानवेतर जीवन धारणोपयोगी प्रयत्न सहजातवृत्ति से और मानव अजित वृत्ति से करता है-उसका प्रयत्न विवेकसम्मत प्रयत्न होता है। इसीलिए इसका प्रयत्न सम्यक् प्रयत्न है। विवेकसम्मत प्रयत्न या बुद्धि विचेष्टन कभी-कभी मानव समाज के लिए अहित कर फलतः मानव के लिए शोभाधायक नहीं होता। विवेकसम्मत प्रयत्न शोभाधायक भी हो-लोक मांगलिक भी हो- इसके लिए आवश्यक है कि वह मानवीय भाव से प्रेरित भी हो । भावात्मक प्रतिक्रिया स्नायुमंगल से सम्बन्ध रखती है अतः वह पशु में भी संभव है, पर मानवीय भावात्मक प्रतिक्रिया वही है, जिसमें लोकमंगल की सुगन्ध हो । यह संभावना प्रकृति ने मनुष्य में ही दी है कि उसका विवेकसम्मत प्रयत्न लोक मांगलिक हो। मनुष्यता की चरितार्थता इसी में है। इसीलिए विश्वभर के महामानव और उनके द्वारा प्रवर्तित प्रस्थान लोक मांगलिक मान्यताओं और मूल्यों का एक स्वर से समर्थन करते हैं ? ऐसे प्रयत्न को विकृति नहीं, संस्कृति ही कह सकते हैं । यह प्रकृति का संस्कार है, जिससे संस्कारित मानव से मानवता की दीप्ति प्रस्फुटित होती है और आस-पास तक का अन्धकार छट जाता है-लोक सत्पथ पर आरूढ़ हो जाते हैं और गन्तव्य की ओर चल पड़ते हैं । संस्कृति लोक मांगलिक उपयोगी-प्रयत्नों के मूल में निहित मूल्यों की समष्टि का ही नामान्तर है । डा० राजवली पाण्डेय ने ठीक ही कहा है कि means of life सभ्यता से और values of life संस्कृति । हमारे भौतिक जीवन यापन के समुन्नत साधनों से हमारी सभ्यता नापी जाती है और लोकमंगलोपयोगी मूल्यों से हमारी संस्कृति । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जब कहते हैं कि संस्कृति उच्चतम चिन्तन का मूर्तरूप है तब वे इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं । मुनि विद्यानंदजी ने ठीक कहा है कि संस्कृति आत्मिक सौन्दर्य की जननी है। इसी के अनुशासन में सुसंस्कारसम्पन्न मानवजाति का निर्माण होता है। सम्पन्नता और संस्कृति में बहिरंग और अन्तरंग धर्म का अन्तर है। निष्कर्ष यह कि लोक मांगलिक भावना की छाया में जो विचार और अनुरूप आचार निष्पन्न होते हैं-संस्कृति उन्हीं की समष्टि है। मानव की आत्म-मंगलोन्मुखी तथा लोकमंगलोन्मुखी यात्रा अनुरूप और उच्चतम भाव, विचार तथा आचार के एकीकरण में ही सम्भव है। संस्कृति उच्चतम चिन्तन का मूर्तरूप हैकितनी सटीक उक्ति है। चिन्तन का मूर्तरूप ही प्रयत्न है, चिन्तन वही उच्चतम या शोभाधायक होगा जो लोक मांगलिक होगा और लोक मांगलिक नही होगा जो मानव भावना से प्रेरित होगा। इसलिए संस्कृति विवेकसम्मत तथा शोभाधायक प्रयत्न का नामान्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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