Book Title: Jain Sadhna me Pranav ka Sthan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 3
________________ ५०० लिखते है १. २. ३. हे मुनि, तु प्रणव का स्मरण कर, क्योंकि यह प्रणव नामक अक्षर दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला को शान्त करने में मेघ के समान है तथा समस्त वाङ्मय को प्रकाशित करने के लिए ज्ञानरूप दीपक है। इसी प्रणव से शब्दरूप ज्योति उत्पन्न हुई है। यह प्रणव ही पञ्च परमेष्ठी से वाच्य वाचक रूप में सम्बन्धित है, परमेष्ठी इस प्रणव के वाच्य हैं और यह प्रणव परमेष्ठी का वाचक है अतः ध्यान करने वाला संयमी साधक हृदयकमल की कर्णिका में स्थित, स्वर- व्यञ्जन आदि अक्षरों से आवेष्ठित, उज्ज्वल एवं अत्यन्त दुर्घर्ष, सुरासुरों के इन्द्रों से पूजित चन्द्रमा की रेखा से आधृत महाप्रभा सम्पन्न, महातत्त्व, महाबीज, महापद, महामन्त्र, शरच्चंद्रमा के समान इस ॐ शब्द का कुम्भक प्राणायाम के साथ चिन्तन करे। यह प्रणव अक्षर सिंदूर अथवा मूंगे के समान रक्तवर्णवाला शोभित होता है इस प्रणव को स्तम्भन के प्रयोग में स्वर्ण के समान पीले रंग का द्वेष के प्रयोग में कज्जल के समान काले रंग का, वश्यादि के प्रयोग में रक्तवर्ण का, और कर्मों ४. स्मर प्रणवं दुःखानलज्वाला - प्रशान्तेर्नवनीरदम् । वाड्मयज्ञानप्रदीपं पुण्यशासनम् ।। यस्माच्छब्दात्मकं ज्योतिः प्रसूतमतिनिर्मलम् । वाच्यवाचकसम्बन्धस्तेनैव परमेष्ठिनः ।। हत्कञ्जकर्णिकासीनं स्वरव्यञ्जनवेष्ठितम्। स्फीतमत्यन्तदुर्द्धर्षं देवदैत्येन्द्रपूजितम् ।। प्रक्षरन्मूर्ध्निसंक्रान्तचन्द्रलेखामृतप्लुतम् जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ महाप्रभावसंपन्नं कर्मकक्ष हुताशनम् ।। महातत्त्वं महाबीजं महामन्त्रं महत्पदम्। शरच्चन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत् । सान्द्रसिंदूरवर्णाभं यदि वा विद्रुमप्रभवम् । चिन्त्यमानं जगत्सर्व क्षोभयर्तमसंगत्।। जाम्बूनदनिभं स्तम्भे विद्वेषे कज्जलत्विषम् । ध्येयं वश्यादिके रक्तं चन्द्राभं कर्मशातने । उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९७२, २५/३१। द्रव्य-संग्रह, संपा० दरबारी लाल कोठिया, प्रका० गणेशवर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९६६ । भैरवपद्यावती कल्प, संपा० के० वी० अभ्यंकर, प्रका० साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, १९३७, ७/२/३। वही, परिशिष्ट १, गाथा - १४ । Jain Education International के नाश में श्वेत वर्ण का अनुभव करते हुए ध्यान करे। इस तथ्य को आचार्य हेमचन्द्र ( १२वीं शती) ने भी अपने योगशास्त्र के अष्टम प्रकाश (२९-३१) में प्रस्तुत किया है। वे लिखते - तथा हतपद्मध्यस्थं शब्दब्रह्मैककारणम्। स्वर- व्यञ्जन-संवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ।। मूर्ध-संस्थित शीतांशु-कलामृतरस-प्लुतम् । कुम्भकेन महामन्त्रं प्रणवं परिचिन्तयेत् ।। पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशिप्रभम् ।। हृदय कमल में स्थिर शब्द ब्रह्म वचन-विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यञ्जन से युक्त, पश्च परमेष्ठी के वाचक, मूर्धा में स्थित चन्द्रकला से झरने वाले अमृत के रस से सराबोर, महामन्त्र प्रणव ॐ का कुम्भक करके, ध्यान करना चाहिए। स्तम्भन के कार्य में पीतवर्ण के, वशीकरण में लाल वर्ण के, क्षोभण कार्य में मूंगे के वर्णवाले, विद्वेषण कार्य में काले वर्ण के और कर्मों का नाश करने के लिए चन्द्रमा के समान उज्जवल श्वेत वर्ण के ओंकार का ध्यान करना चाहिए। उक्त दोनों आचार्यों के इस विधान से यह भी सूचित होता है कि 'ओंकार' का ध्यान कर्मक्षय या आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ लौकिक उपलब्धियों के लिए भी आश्चर्यजनक रूप से उपयोगी होता है फिर भी सत्य तो यह है कि जैन परम्परा में 'प्रणव' की साधना को जो स्थान प्राप्त हुआ। है वह वैदिक परम्परा के प्रभाव से ही हुआ है. पहले इसे जैन कर्मकाण्ड और जैन तन्त्र में स्थान मिला और फिर इसे पञ्चपरमेष्ठी का वाचक मानकर ध्यान और आध्यात्मिक साधना का विषय बनाया गया है। बाद में यह कल्पना भी आयी कि तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि प्रणव रूप में होती है, जिसे प्रत्येक प्राणी अपनी अपनी भाषा में समझ लेता है। इस प्रकार 'प्रणव' समस्त ज्ञान-विज्ञान का आधार भी बन गया। ५. ६. ७. ८. वही, ७/२२। ७/२२-२५। वही, ८ / ११ - १३ । ज्ञानार्णव, अनु० पं०बालचन्द्र शास्त्री, प्रका० जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर, १९७७, ३८/३१-३७१ योगशास्त्र, संपा० मुनि समदर्शी सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६३, ८/२९-३१। वही, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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