Book Title: Jain Sadhna ka Pran Pratikraman Author(s): Shanta Modi Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 1
________________ जैन साधना का प्राण प्रतिक्रमण श्रीमती शान्ता मोदी 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 93 संसार दुःख रूप है और सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र इसकी निवृत्ति के उपाय हैं । चारित्र के अन्तर्गत 'आवश्यक सूत्र' का प्रतिपादन है। लेखिका ने प्रतिक्रमण के संबंध में आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य हरिभद्र और आचार्य भद्रबाहु के मन्तव्य को प्रकट करते हुए प्रतिक्रमण के दो, पाँच, छः और आठ भेदों को समझाया है। सूत्र, टीका, निर्युक्ति से संगृहीत आवश्यक सूत्र की विषय-वस्तु पाठकों के लिए उपादेय है ! -सम्पादक जन्म - जरा - मरण से युक्त, आधि-व्याधि के दुःखों से भरे हुए, प्रतिक्षण परिवर्तनशील व्यवहार वाले, असार होने पर भी सार सहित मालूम होने वाले इस संसार में सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख का नाश करना चाहते हैं । किन्तु जब तक सुख और दुःख के कारणों का ज्ञान न हो, तब तक सुख की प्राप्ति और दुःख का नाश नहीं हो सकता। इसलिये मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग, हिंसा, आरम्भ, ईर्ष्या, राग-द्वेष आदि दुःखों से छुटकारा पाने के लिये वीतराग प्रभु महावीर ने सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया से मोक्ष की प्राप्ति होना बतलाया है। सम्यग्ज्ञान आत्मा की शुद्धि के बिना कदापि नहीं हो सकता और आत्मा की शुद्धि बिना क्रिया के असंभव है। क्योंकि अकेले ज्ञान से कर्मों का क्षय नहीं होता, बल्कि ज्ञानपूर्वक क्रिया से होता है। नवीन कर्मों का बंध रोकने के लिये तथा चिरकाल से लगे हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व योग से उत्पन्न होने वाले कर्मों के समूह का नाश करने के लिये सम्यग्दृष्टि व सम्यग्ज्ञानी जनों को सम्यक् चारित्र में परायण रहना चाहिये। यह निश्चय हो जाने पर चारित्र रूप पवित्र कर्त्तव्य का प्रतिपादन करने वाला 'आवश्यक सूत्र' है। 'अवश्यं करणीयत्वाद् आवश्यकम्' जो अवश्य करणीय हो, वह आवश्यक है । साधु और श्रावक (चारों तीर्थ) नित्यप्रति क्रमशः दिन और रात्रि के अन्त में सामायिक आदि की साधना करते हैं, अतः वह साधना 'आवश्यक' पद वाच्य है । अनुयोगद्वार सूत्र की गाथा है समणेण सावरण य, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा । अन्तो अहो निसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ।। आवश्यक आध्यात्मिक समता, नम्रता तथा आत्म-निरीक्षण आदि सद्गुणों का आधार है। 'गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति ।' जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर गुणों के वश्य अर्थात् अधीन करे, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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