Book Title: Jain Ramkatha ki Vishishtha Parampara Author(s): Yogendranath Sharma Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 3
________________ जैन दर्शन के सात तत्त्वों-जीव, अजीब, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष-का निरूपण 'रामकथा' के माध्यम से हुआ है। आदि तीर्थंकर द्वारा 'कैवल्य' प्राप्त करने के प्रसंग में आत्मसंयम, आत्मानुशासन, आत्मनिग्रह, साधना एवं त्याग आदि का महत्त्व बताया गया है। स्वयंभू जहां अवसर पा जाते हैं, जैन धर्म के तत्त्व की चर्चा कर देते हैं या किसी पात्र से 'जिनवन्दना' या ऋषि-संघ से उपदेश करा देते हैं / सीता-हरण के पश्चात् रावण को मन्दोदरी के माध्यम से स्वयंभू देव जो कुछ कहलाते हैं, उसमें जैनत्व का सार निहित है-- "जिणवर-सासणे पंच विरुद्धइ / दुग्गइ जाइ णिन्ति अविसुद्ध इ॥ पहिलउ बहु छज्जीय-णिकायहुं। वीयउ गम्मइ मिच्छावायहुं / सइयउ जं पर-दव्बु लइज्जइ। चउथउ पर-कलत्तु सेविज्जइ // पंचमु णउ पमाणु घरवारहँ। आहि गम्मइ भव-संसारहँ। "जिन शासन में पांच बातें वजित हैं, प्रथम छ: निकायों के जीवों की हत्या, दूसरी मिथ्यापवाद लगाना, तीसरी परद्रव्यापहरण, चौथी परस्त्रीगमन तथा पांचवीं अपने गृहद्वार का अपरिमाण / इनसे दुर्गति और संसार के कष्ट मिलते हैं।" उपर्युक्त उद्धरणों द्वारा यह सुस्पष्ट हो जाता है कि जैन कवियों ने राम-कथा' को अपने धर्म, दर्शन तथा संस्कृत आदि के प्रकाशन का समर्थतम माध्यम बनाकर ग्रहण किया। वस्तुत: राम का पावन चरित्र देश-काल की सीमाओं से सदा अप्रभावित ही रहा और संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रश तथा हिन्दी के साथ असमिया, बंगला, उड़िया, तमिल एवं कन्नड़ आदि भाषाओं के कवियों ने 'राम-कथा' को अपने-अपने मतों के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया है। यह विलक्षण बात है कि 'राम-कथा' का विस्तार कृष्ण-कथा की अपेक्षा बहुत अधिक हुआ है और जैन साहित्य में तो कवियों ने रामकथा को अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर के साथ ग्रहण किया है। डा० कामिल बुल्के के शब्दों में--"बौद्धों की भांति जैनियों ने भी रामकथा अपनायी है / अन्तर यह है कि जैन कथा-ग्रन्थों में हमें एक अत्यन्त विस्तृत राम-कथा-साहित्य मिलता है।" जैन साहित्य में राम-कथा के स्वरूप को अभी शोधकर्ताओं ने कम देखा है / आवश्यकता इस बात की है कि संस्कृत एवं हिन्दी के मध्य सेतु बनने वाले, प्राकृत-अपभ्रश में उपलब्ध विस्तृत राम-कथा-साहित्य का अनुशीलन-प्रकाशन हो। इसके लिए प्राचीन जैन ग्रन्थागारों की धूल छाननी पड़ेगी। देखें, हम धूल में छिपे दिव्य ग्रन्थ-रत्नों का उद्धार कब कर पाते हैं ! कन्नड़-साहित्य में रामकथा-परम्परा युग-युग से भारतीय जीवन को राम व कृष्ण के कथा साहित्य ने जितना प्रभावित किया है, उतना शायद ही किसी साहित्य ने किया हो / यद्यपि राम तथा कृष्ण-कथाओं का उद्गम और विकास पहले-पहल संस्कृत-साहित्य में हुआ था, तो भी अन्य भारतीय भाषा-साहित्यों में उनकी व्याप्ति कुछ कम नहीं हुई है / तमिल-कन्नड़ जैसी आर्येतर भाषाओं की समृद्धि में इन अमर चित्रों की देन इतनी है कि यदि इन साहित्यों में से राम और कृष्ण-कथा सम्बन्धी साहित्य को अलग कर दिया जाये, तो शेष बचा साहित्य सत्त्वहीन हो जायेगा / कन्नड़ में साहित्य का निर्माण ईसा की लगभग ७वीं शताब्दी से शुरू होता है, फिर निरन्तर उत्कर्ष को प्राप्त होता है / तब से आज तक कन्नड़ में राम-कथा संबंधी साहित्य का सृजन बराबर जारी है। आरंभिक काल में विशेषत: जैन धर्मावलम्बी ही साहित्य-निर्माता रहे / क्योंकि उस समय कर्नाटक में जैन धर्म का विशेष प्रचार हो चला था। १८वीं शताब्दी के लगभग वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हुआ। उसके साथ ही वैदिक मतावलम्बियों ने साहित्यनिर्माण की ओर भी ध्यान दिया। लेकिन संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रश साहित्य के कन्नड़-रूपान्तर का श्रेय जैन कवियों को ही जाता है। जैन कवियों ने प्राय: दो प्रकार के काव्यों की रचना की-१. धार्मिक काव्य, 2. लौकिक काव्य। लौकिक काव्यों में वैदिक साहित्य की कथावस्तुओं का अन्तर्भाव इस कौशल से सम्पन्न हुआ कि संस्कृत भाषा, शैली, रचना-वैचित्र्य, वस्तु-विधान आदि के वैभव से कन्नड़-भाषा तथा साहित्य परिपुष्ट व सत्त्वशाली बना। (-राष्ट्रकवि 'मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन-ग्रंथ' में मुद्रित श्री हिरण्मय के लेख से उद्धृत) जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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