Book Title: Jain Ram Kathao me Jain Dharm
Author(s): Surendrakumar Sharma
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ विविध प्रकार की उपदेशात्मक कथाओं की संयोजना की है। इनका उद्देश्य विद्वत्समाज को ही प्रभावित करना नहीं था, अपितु उस साधारण समाज को भी जीवन प्रदान करना था जो विवेक और चरित्र से सर्वथा अपरिचित था। जैन कथाकारों का एकमात्र उद्देश्य सद्भाव, सद्धर्म और सन्मार्ग-प्रेरक सत्कर्म का जनसमुदाय में प्रचार करके नैतिक और सदाचार युक्त जीवन स्तर को ऊंचा करना था। इस उच्चता द्वारा व्यक्ति लौकिक और पारलौकिक सुख का भोक्ता बन सकता है। इन कथाकारों ने व्यक्ति के जीवन विकास के लिए सद्धर्म और सन्मार्ग के जिन प्रकारों का उल्लेख किया है वे सर्वसाधारण के लिए हैं। कोई व्यक्ति किसी धर्म को मानने वाला, किसी विचारधारा का, किसी देश या जाति का हो, आस्तिक हो या नास्तिक, धनी हो या दरिद्र, सबके लिए यह मार्ग लाभप्रद और कल्याणकारी सिद्ध होता है। मानव के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने की दृष्टि से इन कथा-ग्रन्थों का अधिक महत्त्व है । जैन कृतियों की कथावस्तु लोक-कथाओं पर आधारित है परन्तु जैन कवियों ने औत्सुक्यपूर्ण, कौतूहलयुक्त, काल्पनिक और धार्मिक कथाओं को सर्वथा नवीन रूप में प्रस्तुत किया है। इनके पात्र दैविक शक्ति से सम्पन्न न होकर साधारण समाज से गृहीत होते हैं, जो सुख-दुःख से अनुप्राणित तथा आना-निराशा अर्थ हर्षविवाद और भय एवं साहस के हिंडोलों में झूलते हुए दिखाई देते हैं जहां उनके जीवन में अन्धकार है वहीं प्रकाश की किरणें भी मुस्कराती हुई परिलक्षित होती हैं और अनुराग से रंजित प्रकृति सहानुभूति प्रकट करती हुई जान पड़ती है। जैन कथा के धर्मानुप्राणित नायक जहां एक ओर अदम्य साहस, दृढ़ वीरता, अद्भुत धैर्य और प्रबल पराक्रम का परिचय देते हैं वहीं दूसरी ओर उनके चरित्र में दया, करुणा, परोपकार, सहज स्नेह इत्यादि मानवीय गुणों की झांकी भी देखने को मिलती है । अत: जैन कथाकारों ने धर्म और सदाचार की भित्ति पर मानव-प्रासाद के निर्माण में सक्रिय सहयोग दिया है। अत: चाहे भले ही जैन राम कथा में भौतिक विचारधारा को समुचित स्थान न मिल पाया हो परन्तु धर्म एवं नैतिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार में जो इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, वह निस्संदेह सराहनीय है । स्वयंभू - रामायण के कथा प्रसंग से एक बहुत ही मनोरंजक तथ्य पर प्रकाश पड़ता है और वह है सुन्दरकाण्ड नाम पड़ने के कारण पर । बाल, युद्ध और उत्तर तथा अयोध्या, अरण्य और किष्किन्धाकाण्डों के नामकरण का कारण तो समझ में आ जाता है, क्योंकि वह काफ़ी स्पष्ट है । परन्तु 'सुन्दरकाण्ड' के नामकरण का कारण बहुत कुछ रहस्य ही है । लोगों की सामान्यतः यही धारणा है कि यह काण्ड दूसरों की अपेक्षा अधिक सुन्दर है, इसलिए इसका नाम सुन्दरकाण्ड पड़ा। परन्तु यह व्याख्या किसी प्रकार सन्तोषजनक नहीं कही जा सकती, क्योंकि अन्य काण्डों के साथ इस व्याख्या वाले नाम का मेल नहीं बैठता । सही व्याख्या की कुंजी स्वयंभू रामायण के 'विद्यापर काण्ड में मिलती है 'संदरु' जगे सुंदरु भणेवि, 'सिरिसयलु' सिलायलु चुण्णुणिउ । हरु - दीवे पवडियउ, 'हणुवन्तु' णामु तें तासु किउ ॥ - १११६ ११ हनुमत के अनेक नामों में से एक नाम 'सुन्दर' भी था । इसलिए जिस काण्ड में सुंदर के शौर्य का वर्णन हो, उसका 'सुंदरकाण्ड' नाम न होगा, तो क्या होगा ? रामकथा के पाठक जानते हैं कि 'सुंदरकाण्ड' में आदि से लेकर अंत तक हनुमान के ही पराक्रम का वर्णन है। हनुमान का लंका प्रवेश, सीता का पता लगाना, सीता को आश्वासन देना, लंका को उजाड़ना, रावण को दहलाना, विभीषण से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करना आदि सभी कार्यों के नायक हनुमान हैं और रामकथा में इन कार्यों का कितना महत्त्व है इसे बतलाने की जरूरत नहीं है। ऐसे पराक्रमपूर्ण कार्यों के नायक सुंदर के नाम पर एक संपूर्ण काण्ड का नामकरण उचित ही कहा जायेगा । जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International -डॉ० नामवरसिंह के निबन्ध 'अपभ्रंश का राम - साहित्य' से साभार (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन कथ पु० ० ६१३-१४) ग्रन्थ, For Private & Personal Use Only ६१ www.jainelibrary.org

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