Book Title: Jain Rahasyawad Banam Adhyatmawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 5
________________ आचार्य प्रवर अभिनन्दन आआनन्द आयाम प्रवर श्री आनन्द 鞠 ܐ ३३४ धर्म और दर्शन वर्मा, २६ परशुराम चतुर्वेदी, २७ हजारीप्रसाद द्विवेदी, २८ प्रेमसागर जैन, २६ नेमिचन्द्र शास्त्री, कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, ३१ त्रिगुणायत, ३२ रूपनारायण पाण्डेय, 33 वासुदेवसिंह ३४ आदि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें कतिपय परिभाषाओं को छोड़कर शेष परिभाषाओं में विद्वानों ने रहस्यवाद को किसी एक दृष्टिकोण को लेकर विचार किया है। किसी ने उसे समाजपरक माना है। तो किसी ने विचारपरक, किसी ने अनुभूतिजन्य माना है तो किसी ने ज्ञानजन्य । किसी ने आचारप्रधान माना है तो किसी ने अध्यात्मप्रधान, किसी ने उसकी परिभाषा को विशुद्ध मनोविज्ञान पर आधारित किया है तो किसी ने दर्शन पर, किसी ने उसे जीवनदर्शन माना है तो किसी ने उसे व्यवहारप्रधान बताया है। अतः परिभाषा को एकाङ्गिता के संकीर्ण दायरे से हटाकर उसे सर्वाङ्गीण न की दृष्टि से हम अपनी परिभाषा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं । "रहस्यभावना एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूतिपूर्वक आत्मतत्त्व से परमतत्त्व में लीन हो जाता है ।" यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आकर 'रहस्यवाद' कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अध्यात्म की चरमोत्कर्ष अवस्था की अभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है । परिभाषा का विश्लेषण इस परिभाषा में हम रहस्यवाद की प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं १. रहस्यभावना एक आध्यात्मिक साधन है । अध्यात्म से तात्पर्य तत्त्वचिन्तन है, जिसमें व्यक्ति सम्यक्चारित्र का परिपालन करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की आराधना करता है । ^ अभिनंदन श्र २. स्वानुभूति - रहस्यवाद की अन्यतम विशेषता है स्वानुभूति । बिना स्वयं की प्रत्यक्ष अनुभूति के साधक साध्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी को हम शास्त्रीय भाषा में सम्यग्दर्शन कह सकते हैं । अनुभूति के उपरान्त ही श्रद्धा दृढ़तर होती चली जाती है । . ३. आत्मतत्त्व - आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है । संसरण का मूलकारण है आत्मतत्त्व पर सम्यक् विचार का अभाव । आत्मा का मूल स्वभाव क्या है ? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि जैसे प्रश्नों का समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है । ४. परमपद में विलीन हो जाना रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है । इसमें साधक आत्मा की इतनी पवित्र अवस्था तक पहुँच जाता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है । आत्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है, जहाँ साधक समस्त दुःखों से विमुक्त होकर २६ महादेवी का विवेचनात्मक गद्य २७ रहस्यवाद, पृ. २५. २८ हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृ. ४३८ / २९ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. ४ ( भाग २ ) / ३० हिन्दी साहित्य : एक परिशीलन ३१ हिन्दी पद-संग्रह, प्रस्तावना, पृ. २० ३२ कबीर की विचारधारा ३३ भक्तिकाव्य में रहस्यवाद, पृ. ३४६ ३४ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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