Book Title: Jain Purankalin Bharat me Krushi
Author(s): Deviprasad Mishra
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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________________ २०४ डॉ देवी प्रसाद मिश्र __ जैन ग्रन्थों में खेतों के दो प्रकारों का वर्णन उपलब्ध होता है : (१) उपजाऊ-उपजाऊ भूमि में बीज बोने से अति उत्तम फसल उत्पन्न होती थी।' (२) अनुपजाऊ-ऊसर या खिल (अनुपजाऊ) भूमि (खेत)। जैन पुराणों में वर्णित है कि ऊसर भूमि में बोया गया बीज समूल नष्ट हो जाता है। जैनेतर ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ऊसर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिये राज्य की ओर से पुरस्कार प्रदान किया जाता था। जैनेतर ग्रन्थ अभिधान रत्नमाला में मिट्टी के गुणानुसार साधारण खोत, उर्वर खेत, सर्व फसलोत्पादक खेत, कमजोर खेत, परती भूमि, लोनी मिट्टी का क्षेत्र, रेगिस्तान, कड़ी भूमि, दोमट मिट्टी, उत्तम मिट्टी, नई घासों से आच्छादित भूमि, नरकुलों आदि से संकुल भूमि आदि के लिए पृथक्-पृथक् शब्द व्यवहृत कृषि को सुव्यवस्थित करने एवं अधिक उपज के लिए राज्य की ओर से सहायता भी प्रदान की जाती थी। महापुराण के अनुसार राजा कृषि की उन्नति के लिये खाद, कृषि-उपकरण, बीज आदि प्रदान कर खेती कराता था। इसी पुराण में अन्यत्र उल्लिखित है कि खेत राजा के भण्डार के समान थे। जैन पुराणों में कृषक को कर्षक और हलवाहक को कीनाश शब्द से सम्बोधित किया गया है। महापुराण के अनुसार कृषक भोलेभाले, धर्मात्मा, वीतदोष तथा क्षुधा-तृषा आदि क्लेषों के सहिष्णु तथा तपस्वियों से बढ़कर होते थे। कृषक हल, बैल और कृषि के अन्य औजारों के माध्यम से खेती करते थे। खेत की उत्तम जुताई कर, उसमें उत्तम बीज एवं खाद का प्रयोग करते थे। र० गंगोपाध्याय ने एग्रीकल्चर एण्ड एग्रीकल्चरिस्ट इन ऐंशेण्ट इण्डिया में गोबर की खाद को खेती के लिये अत्यन्त उपयोगी माना है। इसके अतिरिक्त खेती को सिंचाई की भी आवश्यकता होती थी। महापुराण में सिंचाई के दो प्रकार के साधनों का उल्लेख मिलता है-(१) अदेवमातृका-नहर, नदी, आदि कृत्रिम साधन से, सिंचाई व्यवस्था और (२) देवमातृका-वर्षा के जल से सिंचाई व्यवस्था ।१ वर्षा समयानुकूल १. पद्मपुराण २७ २. वही ३७०; हरिवंश पुराण ३७० ३. नारद स्मृति १४।४ ४. द्रष्टव्य-लल्लन जी गोपाल-वही, पृ० २५९ ५. महापुराण ४२।१७७ ६. वही ५४।१४ ७. पद्मपुराण ६।२०८; महापुराण ५४।१२ ८. वही ३४॥६० ९. महापुराण ५४।१२ १०. लल्लनजी गोपाल-वही, पृ० २६० ११. महापुराण १६।१५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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